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ठाणं (स्थान)
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स्थान १:टि० ६६-११३
योग तीन हैं-काययोग, वचनयोग और मनोयोग । लेश्या के पुद्गलों का ग्रहणात्मक सम्बन्ध काययोग से होता है, क्योंकि सभी प्रकार की पुद्गल-वर्गणाओं का ग्रहण और परिणमन उसी (काययोग) के द्वारा होता है और उनका प्रभावात्मक सम्बन्ध मनोयोग से होता है, क्योंकि काययोग द्वारा गृहीत पुद्गल मन के विचारों को प्रभावित करते हैं । इस परिभाषा के अनुसार विचारों की उत्पत्ति में निमित्त बननेवाले पुद्गल तथा उनसे उत्पन्न होनेवाले विचार ही लेश्या कहलाते हैं। किंतु भगवती, प्रज्ञापना आदि सूत्रों से शारीरिक वर्ण और आभा-वलय व तैजस-वलय भी लेश्या के रूप में फलित होते हैं, अतः 'योगपरिणामो लेश्या'; यह लेश्या की सापेक्ष परिभाषा है, किन्तु परिपूर्ण परिभाषा नहीं है। इस तथ्य को स्मृति में रखना आवश्यक है—प्रशस्त और अप्रशस्त पुद्गलों के द्वारा हमारी विचार-परिणति होती है और शरीर के आसपास निर्मित आभा-वलय हमारी विचार-परिणति का प्रतिबिंब होता है।
प्रस्तुत सूत्र के तीसरे स्थान में लेश्या के गंध आदि के आधार पर दो वर्गीकरण किए गए हैं। प्रथम वर्गीकरण में प्रथम तीन लेश्याएं हैं-- कृष्ण, नील और कापोत । दूसरे वर्गीकरण में अग्रिम तीन लेश्याएं हैं-तेजः, पद्म और शुक्ल । देखिए -यन्त्र
प्रथम वर्गीकरण
द्वितीय वर्गीकरण
अनिष्ट गंध दुर्गतिगामिनी संक्लिष्ट अमनोज्ञ अविशुद्ध अप्रशस्त शीत-रूक्ष
इष्ट गंध सुगतिगामिनी असंक्लिष्ट मनोज्ञ विशुद्ध प्रशस्त स्निग्ध-उष्ण
६९-११३-सिद्ध (सू० २१४-२२८) :
५२वें सूत्र में सिद्ध की एकता का प्रतिपादन किया गया है और यहां उनके पन्द्रह प्रकार बतलाए गए हैं। जीव दो प्रकार के होते हैं-सिद्ध और संसारी' । कर्मबंधन से बंधे हुए जीव संसारी और कर्ममुक्त जीव सिद्ध कहलाते हैं।
सिद्धों में आत्मा का पूर्ण विकास हो चुकता है, अतः आत्मिक विकास की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। इस अभेद की दृष्टि से कहा गया है कि सिद्ध एक हैं। उनमें भेद का प्रतिपादन पूर्वजन्म के विविध सम्बन्ध-सूत्रों के आधार पर किया गया है--
१. तीर्थ सिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पश्चात् तीर्थ में दीक्षित होकर सिद्ध होते हैं, जैसे ऋषभदेव के गणधर ऋषभसेन आदि।
२. अतीर्थसिद्ध-जो तीर्थ की स्थापना के पहले सिद्ध होते हैं, जैसे-मरुदेवी माता। ३. तीर्थंकरसिद्ध-जो तीर्थकर के रूप में सिद्ध होते हैं, जैसे-ऋषभ आदि। ४. अतीर्थंकरसिद्ध-जो सामान्य केवली के रूप में सिद्ध होते हैं। ५. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो स्वयं बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं। ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी एक बाह्य निमित से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं। ७. बुद्धबोधितसिद्ध-जो आचार्य आदि के द्वारा बोधि प्राप्त कर सिद्ध होते हैं।
१. स्थानांग, ३५१५,५१६ । २. उत्तराध्ययन, ३६।४८ ।
संसारत्था य सिद्धा य । दुविहा जीवा वियाहिया।
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