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________________ ठाणं (स्थान) स्थान १:टि० ११३ ८. स्त्रीलिङ्गसिद्ध-जो स्त्री के शरीर से सिद्ध होते हैं। ६. पुरुषलिङ्गसिद्ध-जो पुरुष के शरीर से सिद्ध होते हैं। १०. नपुंसकलिङ्गसिद्ध-जो कृत नपुंसक के शरीर से सिद्ध होते हैं। ११. स्वलिङ्गसिद्ध-जो निर्ग्रन्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। १२. अन्यलिङ्गसिद्ध-जो निम्रन्थेतर भिक्षु के वेश में सिद्ध होते हैं। १३. गृहलिङ्गसिद्ध-जो गृहस्थ के वेश में सिद्ध होते हैं। १४. एकसिद्ध-जो एक समय में एक सिद्ध होता है। १५. अनेकसिद्ध-जो एक समय में दो से लेकर उत्कृष्टतः एक सौ आठ तक एक साथ सिद्ध होते हैं। इन पन्द्रह भेदों के छह वर्ग बनते हैं। प्रथम वर्ग से यह ध्वनित होता है कि आत्मिक निर्मलता प्राप्त हो तो संघबद्धता और संघ मुक्तता-दोनों अवस्थाओं में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। दूसरे वर्ग की ध्वनि यह है कि आत्मिक निर्मलता प्राप्त होने पर हर व्यक्ति सिद्धि प्राप्त कर सकता है, फिर वह धर्म-संघ का नेता हो या उसका अनुयायी। तीसरे वर्ग का आशय यह है कि बोधि की प्राप्ति होने पर सिद्धि प्राप्त की जा सकती है, फिर वह (बोधि) किसी भी प्रकार से प्राप्त हुई हो। चौथे वर्ग का हार्द यह है कि स्त्री और पुरुष दोनों शरीरों से यह सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। पांचवें वर्ग से यह ध्वनित होता है कि आत्मिक निर्मलता और वेशभूषा का घनिष्ठ सम्बन्ध नहीं है। साधना की प्रखरता प्राप्त होने पर किसी भी वेश में सिद्धि प्राप्त की जा सकती है। छठा वर्ग सिद्ध होने वाले जीवों की संख्या और समय से सम्बद्ध है। वेदान्त का अभिमत यह है कि मुक्तजीव ब्रह्मा के साथ एक-रूप हो जाता है, इसलिए मुक्तावस्था में संख्याभेद नहीं होता। उपनिषद् का एक प्रसंग है महर्षि नारद ने सनत्कुमार से पूछा-मुक्त जीव किसमें प्रतिष्ठित है ? सनत्कुमार ने कहा-वह स्वयं की महिमा में अर्थात् स्वरूप में प्रतिष्ठित है। इसका तात्पर्य यह है कि वह ब्रह्म के साथ एकरूप है । जैन-दर्शन आत्म-स्वरूप की दृष्टि से सिद्धों में भेद का प्रति-- पादन नहीं करता, किन्तु संख्या की दृष्टि से उनकी अनेकता का प्रतिपादन करता है। जैन दर्शन के अनुसार मुक्तजीवों में कोई वर्गभेद नहीं है, जिससे कि एक कोई आत्मा प्रतिष्ठापक बनी रहे और दूसरी सब आत्माएं उसमें प्रतिष्ठित हो जाएं। एक ब्रह्म या ईश्वर हो तथा दूसरी मुक्त आत्माएं उसमें विलीन हों, यह सम्मत नहीं है । सब मुक्त आत्माओं का स्वतंत्र अस्तित्व है। उनकी समानता में कोई अन्तर नहीं है। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से पूछा-भगवन् ! सिद्ध कहां प्रतिष्ठित होते हैं ? भगवान ने कहा-मुक्तजीव लोक के अंतिम भाग में प्रतिष्ठित होते हैं। एक मुक्तजीव दूसरे मुक्तजीव में प्रतिष्ठित नहीं होता, इसीलिए भगवान ने अपने उत्तर में उनकी क्षेत्रीय प्रतिष्ठा का उल्लेख किया है। १. छान्दोग्य उपनिषद्, ७।२४।१: स भगवः कस्मिन् प्रतिष्ठित इति । स्वे महिम्नि यदि वा न महिम्नीति। २. बोवाइय, सूत्र १९५: कहिं सिद्धा पइट्ठिया ? (गाथा १) लोयग्गे य पइट्ठिया । (गाथा २) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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