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ठा (स्थान)
४. वृषवीथी - उत्तरफल्गुनी, पूर्व फल्गुनी, मघा । ५. गोवीथी - रेवती, उत्तरप्रोष्ठपद, पूर्वप्रोष्ठपद । ६. जरद्गवपथ - श्रवणा, पुनर्वसु, शतभिषत् ।
७. अजवीथी - विशाखा, चित्रा, स्वाति, हस्त ।
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८. मृगवीथी - ज्येष्ठा, मूला, अनुराधा ।
६. वैश्वानरपथ - अभिजित्, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा ।
स्थानांग वृत्तिकार ने भद्रबाहुकृत आर्याछन्द के श्लोकों का उद्धरण देकर नौ वीथियों के नक्षत्रों का उल्लेख किया है।" ये श्लोक प्रकाशित भद्रबाहु संहिता में उपलब्ध नहीं होते । यह अन्वेष्टव्य है कि वृत्तिकार ने ये श्लोक किस ग्रन्थ से उद्धृत किए हैं।
वृत्तिकार का अभिमत है कि कहीं-कहीं हह्यवीथी के स्थान पर नागवीथी और नागवीथी के स्थान पर ऐरावणपथ भी मिलता है।
विभिन्न वीथियों के नक्षत्रों के विषय में भी सभी एकमत नहीं हैं। वराहमिहिरकृत बृहत्संहिता तथा वाजसनेयी प्रातिसारूप आदि ग्रंथों में नक्षत्र विषयक मतभेद स्पष्ट दृग्गोचर होता है ।
शुक्र ग्रह जब इन वीथियों में विचरण करता है तब होने वाले लाभ अलाभ की चर्चा करते हुए वृत्तिकार ने भद्रबाहुकृत दो ब्लोक उद्धृत किए हैं। उनके अनुसार जब शुक्र ग्रह प्रथम तीन वीथियों में विचरण करता है तब वर्षा अधिक, धान्य सुलभ और धन की वृद्धि होती है । जब वह मध्य की तीन वीथियों में विचरण करता है तब धन-धान्य आदि मध्यम होते हैं और जब वह अन्तिम तीन वीथियों में विचरण करता है, तब लोकमानस पीड़ित होता है, अर्थ का नाश होता है। भद्रबाहुसंहिता के पन्द्रहवें अध्याय में इसका विस्तृत विवेचन उपलब्ध होता है ।
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स्थान : टि० ६१
६१. ( सू० ६९ )
'नो' शब्द के कई अर्थ होते हैं— निषेध, आंशिक निषेध, साहचर्य आदि । प्रस्तुत प्रसंग में उसका अर्थ है - साहचर्यं । क्रोध, मान, माया और लोभ - ये चार कषाय हैं । प्रत्येक के चार-चार भेद होते हैं--अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन | इन सोलह कषायों के साहचर्य से जो कर्म उदय में आते हैं, उन्हें नोकपाय कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में वे निर्दिष्ट हैं। जैसे बुध ग्रह स्वयं कुछ भी फल नहीं देता है, किन्तु दूसरे ग्रहों के साथ रहकर अपना फल देता है, इसी प्रकार ये नोकषाय भी मूल कषायों के साथ रहकर फल देते हैं ।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४४५
जो कर्म नोकषाय के रूप में अनुभूत होते हैं वे नोकषायवेदनीय कहलाते हैं। वे नौ हैं
(१) स्त्रीवेद - शरीर में पित्त के प्रकोप से मीठा खाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। उसी प्रकार इस कर्म के उदय से स्त्री की पुरुष के प्रति अभिलाषा होती है ।
(२) पुरुषवेद- शरीर में श्लेष्म के प्रकोप से खट्टा खाने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। उसी प्रकार इस कर्म के उदय से पुरुष की स्त्री के प्रति अभिलाषा होती है।
(३) नपुंसकवेद – शरीर में पित्त और श्लेष्म – दोनों के प्रकोप से भुने हुए पदार्थों को खाने की इच्छा उत्पन्न
भरणी स्वत्याग्नेयं नागाख्या वीथिरुत्तरे मार्गे । रोहिण्यादिरिभाख्या चादित्यादिः सुरगजाख्या ।। वृषभाख्या पत्र्यादिः श्रवणादि मध्यमे जरद्गवाख्याः । प्रोष्ठपदादि चतुष्के गोवीथि स्तासु मध्यफलम् ॥ अजवीथी हस्तादि र्मृगवीथी वैन्द्रदेवतादि स्यात् । दक्षिणमार्गे वैश्वानर्ध्यापाढद्वयं
ब्राह्म्यम् ॥
२. वही, पत्र ४४५ या चेह हयवीथी साऽन्यत्न नागवीथीति रूहा नागवीथी चैरावणपदमिति ।
३. वही, पत्र ४४५ :
एतासु भूगुविचरति नागगजैरावतीषु वीथिषु चेत् । बहु वर्षेत् पर्जन्यः सुलभीषधयोऽर्थवृद्धिश्च ॥ पशुसंज्ञासु च मध्यमशस्यफलादियंदा चरेद् भृगुजः । अजमृगवैश्वानरवीथिष्वर्थ'भयादितो लोकः ।।
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