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________________ ठाणं (स्थान) इसके आधार पर प्राघूर्ण भक्त के दो अर्थ होते हैं(१) आगन्तुक भिक्षुओं के निमित्त बनाया गया भोजन । (२) भिक्षुओं के लिए बनवाकर दूसरे गृहस्थ द्वारा दिया जाने वाला भोजन । निशीथ चूर्णि में इसका अर्थ है- राजा के मेहमान के लिए बनाया गया भोजन । ' वृत्तिकार ने कांतारभक्त आदि को आधाकर्म आदि के अन्तर्गत माना है । ५८. राजपंड (सू०६२) ५७. शय्यातर पिंड ( सू० ६२ ) स्थानदाता का पिंड | इसके अन्तर्गत चारों प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादप्रोंछन, सूचि, नखकर्त्तरी और कर्णशोधनी- ये भी स्थानदाता के हों तो वे भी शय्यातर पिंड के अन्तर्गत आते हैं ।' विशेष विवरण के लिए देखें- दसवेआलियं ३।५ का टिप्पण । देखें - दसवेलियं ३।२ का टिप्पण | 'वे ये हैं ५६. (सू०६३) वृत्तिकार ने यहां मतान्तर का उल्लेख किया है। उसके अनुसार दस नक्षत्र चन्द्रमा का पश्चिम से योग करते हैं। Jain Education International ८६० १. अश्विनी २. भरणी ३. श्रवण ४. अनुराधा ५. धनिष्ठा ६. रेवती ७. पुष्य ८. मृगशिर 8. हस्त १०. चिह्ना । ६०. (सू० ६८) शुक्र ग्रह समधरणीतल से नौ सौ योजन ऊपर भ्रमण करता है। उसके भ्रमण क्षेत्र को नौ वीथियों [ क्षेत्र विभागों । में विभक्त किया गया है। प्रत्येक वीथि में प्रायः तीन-तीन नक्षत्र होते हैं। भद्रबाहुसंहिता के अनुसार उनका वर्णन इस प्रकार है - १. नागवीथी - भरणी, कृत्तिका, अश्विनी । २. गजवीथी - मृगशिरा, रोहिणी, आर्द्रा । ३. ऐरावणपथ - पुष्या, आश्लेषा, पुनर्वसु । १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : प्राघूर्णका - आगन्तुकाः भिक्षुका एव तदर्थं यद्भवतं तत्तथा, प्राघूर्णको वा गृही स यद्दापयति तदर्थं संस्कृत्य तत् तथा । २. निशीथ ६६ चूणिः- रण्णो को ति पाहुणगो आगतो तस्स भत्तं आदेसभत्तं । ३. स्थानांगवृत्ति पत्र ४४३ : कान्तारभक्तादय आधाकर्मादि भेदा एव । ४ स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४४ । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४४ मतान्तरं पुनरेवम्- असिणिभरणी समणो अणुराधणिट्ठरेव ईपूसो । चित्ता पच्छिमजोगा मुणेयब्वा || स्थान : टि० ५७-६० ६. भद्रबाहु संहिता १५/४४-४८ : 0 • नागवीथीति विज्ञेया, भरणी कृत्तिकाविनी । सत्त्वानां रोहिणी चार्द्रा, गजवीथीति निर्दिशेत् ॥ ऐरावणपथं विन्द्यात् फाल्गुनौ च मघा चैव पुष्याश्लेषा पुनर्वसुः । वृषवीथीसि संज्ञिता । • गोवीथी रेवती चैत्र द्वे च प्रोष्ठपदे तथा । जरद्गवपथं विद्याच्छ्रवणं वसु वारुणम् ॥ • अजवीथी विशाखा च चित्रा स्वाति करस्तथा । ज्येष्ठा मूलानुराधासु मृगवीथीति संज्ञिता ।। • अभिजिद्द्वै तथापाढे, वैश्वानरपथः स्मृतः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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