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स्थान ६ : टि० ४१-५६
ठाणं (स्थान)
८८६ ४१. लब्धापलब्धवृत्ति (सू० ६२)
सम्मानपूर्वक प्राप्त भिक्षा और असम्मानपूर्वक प्राप्त भिक्षा।
४२. आधार्मिक (सू० ६२)
श्रमण के लिए बनाया गया आहार आदि ।
४३-४८. औद्देशिक, मिश्रजात, अध्यवतर, पूतिकर्म, क्रोत, प्रामित्य (सू० ६२)
देखें-दसवेआलियं ३।२ का टिप्पण।
४६-५०. आच्छेद्य, अनितृष्ट (सू० ६२)
आच्छेद्य-बलात् नौकर आदि से छीन कर साधु को देना।'
अनिसृष्ट--जो वस्तु अनेक व्यक्तियों के अधिकार की हो और उन व्यक्तियों में से एक या अधिक व्यक्ति उस वस्त को देना न चाहते हों, ऐसी वस्तु ग्रहण करना अनिसृष्ट दोष है।
५१. अन्याहृत (सू० ६२)
देखें-दसवेआलियं ३।२ का टिप्पण ।
५२-५६. कान्तारभक्त प्राघूर्णभक्त (सू० ६२)
कान्तारभक्त-प्राचीनकाल में मुनियों का गमनागमन सार्थवाहों के साथ-साथ होता था। कभी वे अटवी में साबू पर दया लाकर, उसके लिए भोजन बनाकर दे देते थे। इसे कान्तारभक्त कहा जाता है।
दुभिक्षभक्त-भयंकर दुष्काल होने पर राजा तथा अन्य धनाढ्य व्यक्ति भक्त-पान तैयार कर देते थे। वह दुर्भिक्षभक्त कहलाता था।
ग्लानभक्त-इसके तीन अर्थ हैं(१) आरोग्यशाला [अस्पताल में दिया जाने वाला भोजन। (२) आरोग्यशाला के बिना भी सामान्यत: रोगी को दिया जाने वाला भोजन।' (३) रोग के उपशमन के लिए दिया जाने वाला भोजन ।
बालिकाभक्त-आकाश में बादल छाए हुए हैं। वर्षा गिर रही है। ऐसे समय में भिक्षु भिक्षा के लिए नहीं जा सकते । यह सोचकर गृहस्थ उनके लिए विशेषत : दान का निरूपण करता है। वह बालिकाभक्त कहलाता है।
निशीथ चूणि में इसका अर्थ इस प्रकार हैसात दिनों तक वर्षा पड़ने पर राजा साधुओं के निमित्त भोजन बनवाता है।" प्राघूर्णभक्त-अतिथि को दिया जाने वाला भोजन। वृत्तिकार ने प्राघूर्णक के दो अर्थ किए हैं(१) आगन्तुक भिक्षुक (२) गृहस्थ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : 'आच्छेद्य' बलाद् भृत्यादिसत्क
माच्छिद्य यत्स्वामी साध्वे ददाति । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : अनिसृष्टं साधारणं बहूनामेकादिना
अननुज्ञातं दीयमानम् । ३. निशीथ ।।६ चणि:--जंभिक्खं राया देति तं दुभिक्खजातं। ४. निशीथ ।६ चूणिः-आरोग्गसालाए वा विणावि आरोग्ग
सालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाणभक्तं ।
५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : रोगोपशान्तये यद्ददाति । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४४३ : बईलिका-मेघाडम्बरं तन हि
वृष्ट्या भिक्षाभ्रमणाक्षमो भिक्षुकलोको भवतीति गृही तदर्थ विशेषतो भक्तं दानाय निरूपयतीति । ७. निशीय ३६ चूर्णि:--सत्ताहबद्दले पडते भत्तं करेति राया
अपुब्बाणं वा अविधीण भत्तं करेति राया ।
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