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________________ ठाणं (स्थान) ८८८ ८८८ स्थान :: टि. २७-४० कुंभ-बत्तीस सेर अथवा ३२४ ६४ = २०४८ तोलों का एक कुंभ होता है। २७-२८. पूर्णभद्र और माणिभद्र (सू०६२) पूर्णभद्र-दक्षिण यक्षनिकाय का इन्द्र। माणिभद्र-उत्तर यक्षनिकाय का इन्द्र।' २६-३७. राजा सार्थवाह (सू० ६२) राजा---यहां इसके द्वारा 'महामांडलिक' शब्द अभिप्रेत है। आठ हजार राजाओं के अधिपति को महामांडलिक कहा जाता है। ईश्वर-इसके अनेक अर्थ हैं-युवराज, मांडलिक-चार हजार राजाओं का अधिपति, अमात्य अथवा अणिमा आदि आठ लब्धियों से युक्त । तलवर-कोतवाल । प्राचीन काल में राजा परितुष्ट होकर जिसे पट्टबंध से विभूषित करता था उसे तलवर कहा जाता था।" माडंबिक-मडंब का अधिपति । जिसके आसपास कोई नगर न हो उसे 'मडंब' कहते हैं। कौटुम्बिक-कतिपय कुटुम्बों का स्वामी। इभ्य-धनवान् । जिसके पास इतना धन हो कि उसके धन के ढेर में छिपा हुआ हाथी भी न मिले । श्रेष्ठी--नगरसेठ। इसके मस्तक पर श्रीदेवी से अंकित सोने का एक पट्ट बंधा रहता था। सेनापति-हाथी, अश्व, रथ और पैदल-इन चतुर्विध सेनाओं का अधिपति । इसकी नियुक्ति राजा करता था।" सार्थवाह —सथवाडों का नायक । ३८. भावना (सू० ६२) पांच महाव्रत की पचीस भावनाएं हैं। इनके विवरण के लिए देखें-आयारचूला १५।४३-७८%; उत्तरज्झयणाणि, भाग २, पृष्ठ २६७, २९८ । ३६-४०. फलकशय्या, काष्ठशय्या (सू० ६२) फलकशय्या-पतले और लम्बे काष्ठ से बनी शय्या। काष्ठशय्या-मोटे और लम्बे काष्ठ से बनी शय्या। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : कुम्भ आढकषष्ठ्यादिप्रमाणतः । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : पूर्णभद्रश्च-दक्षिणयक्षनिकायेन्द्रः । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : माणिभद्रश्च-उत्तरयक्ष निकायेन्द्रः । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६: राजा महामांडलिकः । ५. वही, पन ४३६ : विलोयपण्णत्ती। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : ईश्वरो-युवराजो माण्डलिकोऽ मात्यो वा, अन्ये च व्याचक्षते -अणिमाद्यष्टविध श्वर्ययुक्त ईश्वर इति । ७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : तलवर :--परितुष्टनरपतिप्रदत्त पट्टबन्धनभूषितः । ८. स्थानागवत्ति, पत्र ४३६ : माडम्बिक:--छिन्नमडम्बाधिपः । ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : कौटुम्बिक:-कतिपयकुटुम्बप्रभुः । १०. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : इभ्यः- अर्थवान् । स च किल यदीयपुजीकृतद्रव्यराश्यन्तरितो हस्त्यपि नोपलभ्यत इत्येता बताऽर्थनेति भावः । ११. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : श्रेष्ठी-श्री देवताध्यासितसौवर्णपट्ट भूषितोत्तमाङ्गः पुरज्येष्ठो वणिक् । १२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६ : सेनापतिः-नृपतिनिरूपितो हस्त्यश्व रथपदातिसमुदायलक्षणा या: सेनायाः प्रभुरित्यर्थः । १३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३६, सार्थवाहक:-सार्थनायकः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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