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________________ ठाणं (स्थान) ८८७ स्थान ६ : टि० २०-२६ वृत्तिकार ने बताया है कि औपपातिक सूत्र (४०) में अम्मड परिव्राजक के महाविदेह में सिद्ध होने की बात बताई है। वह कोई अन्य है। सुपार्खा- यह पार्श्व की परम्परा में प्रव्रजित साध्वी थी। समवायांग सूत्र २५८ में आगामी उत्सपिणी में होने वाले २४ तीर्थंकरों के नाम हैं। उसके अनुसार यहां उल्लिखित नामों में से छठा 'निर्ग्रन्थदारूक' और नौंवा 'आर्या सुपा को छोड़कर शेष सात तीर्थकर होंगे। वृत्तिकार का अभिमत है कि इनमें से कुछ मध्यम तीर्थकर के रूप में तथा कई केवली के रूप में होंगे। २०. पुण्ड (सू०६२) विध्याचल के समीप का भूभाग। २१. लक्षण-व्यञ्जन (सू० ६२) लक्षण-सामुद्रिकशास्त्र में उक्त मनुष्य का मान, उन्माद आदि । शरीर पर चक्र आदि के चिह्न तथा रेखाएं। ये जन्मगत होते हैं। व्यंजन- शरीर पर होने वाले मष, तिल आदि। ये जन्म के साथ या बाद में भी उत्पन्न होते हैं।' २२-२४. मान-उन्मान-प्रमाण (सू०६२) जल से भरे कुण्ड में उस पुरुष को उतारा जाता है जिसका 'मान' जानना होता है। उस पुरुष के अन्दर पैठने पर जितना जल कुंड से बाहर निकलता है, वह यदि एक द्रोण [१६ सेर] प्रमाण होता है, तब उस पुरुष को मानोपपन्न कहा जाता है। उन्मान–तराज में तोलने पर जिस व्यक्ति का भार 'अर्द्धभार' [डेढ मन ढाई सेर] प्रमाण होता है, उस व्यक्ति को उन्मानोपपन्न कहा जाता है। प्रमाण—जिस व्यक्ति की ऊंचाई अपने अंगुल से एक सौ आठ अंगुल होती है, उसे प्रमाणोपपन्न कहा जाता है। २५-२६. भार और कुंभ (सू० ६२) भार–चार तोले का एक पल होता है। दो हजार पलों का एक 'भार' होता है। चौसठ तोले का एक सेर मानने पर तीन मन पांच सेर का एक 'भार' होगा। भार का दूसरा अर्थ है--एक पुरुष द्वारा उठाया जाने वाला वजन।' १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३४ : यश्चौपपातिकोपाङ्ग महाविदेहे सेत्स्यतीत्यभिधीयते सोऽन्य इति सम्भाव्यते। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३४ : एतेषु च मध्यमतीर्थकरत्वेनो त्पत्स्यन्ते केचित्केचित्तु केवलित्वेन । ४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : मान-जलद्रोणप्रमाणता, सा ह्य व-जलभृते कुण्डे प्रमातव्यपुरुष उपवेश्यते, ततो यज्जलं कुण्डान्निर्गच्छति तद्यदि द्रोणप्रमाणं भवति तदा स पुरुषः मानोपपन्न इत्युच्यते। ५. स्थानांगवत्ति, पत्र ४३८ : उन्मानं तुलारोपितस्यार्द्धभार प्रमाणता। ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : प्रमाणं-आत्माङ्गुलेनाष्टोत्तर शताङ्गुलोच्छ्यता। ७. स्थानांगवृत्ति, पब ४३८ : विंशत्या पलशतैर्भारो भवति अथवा पुरुषोत्क्षेपणीयो भारो भारक इति । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३८ : लक्षणं--पुरुषलक्षणं शास्त्राभिहित... व्यञ्जनं-मपतिलकादि...... माणुम्माणपमाणादि लक्खणं वंजणं तु मसमाई। सहजं च लक्खणं बंजणं तु पच्छा समुप्पन्न । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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