SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 927
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ८८६ स्थान :: टि०१६ निवारण कर ये चतुर्याम धर्म को छोड़ पञ्चयाम धर्म में दीक्षित हो गए। पोट्टिल और शतकइनका वर्णन ६।६० के टिप्पण में किया जा चुका है। दारुक-वृत्तिकार के अनुसार ये वासुदेव के पुत्र थे तथा अरिष्टनेमि के पास दीक्षित हुए थे। उन्होंने इनके विशेष विवरण के लिए अनुत्तरोपपातिक सूत्र की ओर संकेत किया है। परन्तु उपलब्ध अनुत्तरोपपातिक में 'दारुक' नाम के किसी अनगार का विवरण प्राप्त नहीं है। अन्तकृत सूत्र के तीसरे वर्ग के बारहवें अध्ययन में दारुक अनगार का विवरण है। उनके पिता का नाम वासुदेव और माता का नाम धारणी था। वे यहां विवक्षित नहीं हो सकते। क्योंकि वे तो अन्तकृत हो गए और प्रस्तुत सूत्र में आगामी उत्सपिणी में सिद्ध होने वालों का कथन है। अतः ये कौन अनगार थे-इसको जानने के स्रोत उपलब्ध नहीं हैं। सत्यकी---वैशाली गणतन्त्र के अधिपति महाराज चेटक की पत्नी का नाम सुज्येष्ठा था। वह प्रव्रजित हुई और अपने उपाश्रय में कायोत्सर्ग करने लगी। वहां एक पेढाल परिव्राजक रहता था। उसे अनेक विद्याएं सिद्ध थीं। वह अपनी विद्या को देने के लिए योग्य व्यक्ति की खोज कर रहा था। उसने सोचा-यदि किसी ब्रह्मचारिणी स्त्री से पुत्र उत्पन्न हो तो ये विद्याएं बहुत कार्यकर हो सकती हैं। एक बार उसने साध्वी को कायोत्सर्ग में स्थित देखा। उसने मंत्र विद्या से धूमिका व्यामोह (वातावरण को धूमिल बनाकर) से साध्वी में वीर्य का निवेश किया। उसके गर्भ रहा। एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम सत्यकी रखा। एक बार वह साध्वी अपने पुत्र के साथ भगवान् के समवसरण में गई। उस समय वहां कालसंदीप नाम का विद्याधर आया और भगवान् से पूछा- 'मुझे किससे भय है ?' भगवान् ने सत्यकी की ओर इशारा करते हुए कहा-'इस सत्यकी से।' तब कालसंदीप उसके पास आकर अवज्ञा करते हुए बोला- 'अरे! तू मुझे मारेगा?' यह कह कर उसे अपने पैरों में गिराया। ___एक बार पेढाल परिव्राजक ने साध्वियों से सत्यकी को ले जाकर उसे विद्याएं सिखाईं। पांच जन्म तक वह रोहिणी विद्या द्वारा मारा गया। छठे जन्म में जब आयु-काल केवल छह महीनों का रहा तब उसने उसे साधना छोड़ दिया। सातवें जन्म में वह सिद्ध हुई। वह उस सत्यकी के ललाट में छेद कर शरीर में प्रवेश कर गई। देवता ने उस ललाट-विवर को तीसरी आंख के रूप में परिवर्तित कर दिया। सत्यकी ने देवता की स्थापना की। उसने काल सन्दीप को मार डाला और वह विद्याधरों का राजा हो गया। तब से वह सभी तीर्थंकरों को वंदना कर नाटक दिखाता हुआ विहरण कर रहा है। अम्मड परिव्राजक–एक बार श्रमण भगवान महावीर चम्पा नगरी में समवसृत हुए। परिव्राजक विद्याधर श्रमणोपासक अम्मड ने भगवान् से धर्म सुनकर राजगृह की ओर प्रस्थान किया। उसे जाते देख भगवान् ने कहा- 'श्राविका सुलसा को कुशल समाचार कहना।' अम्मड ने सोचा---'पुण्यवती है सुलसा कि जिसको स्वयं भगवान् अपना कुशल समाचार भेज रहे हैं। उसमें ऐसा कौन-सा गण है ? मैं उसके सम्यक्त्व की परीक्षा करूंगा।' अम्मड परिव्राजक के वेश में सुलसा के घर गया और बोला-'आयुष्मति ! मुझे भोजन दो, तुम्हें धर्म होगा।' सुलसा ने कहा- 'मैं जानती हूं किसे देने से धर्म होता है।' अम्मड आकाश में गया, पद्मासन में स्थित होकर विभिन्न लोगों को विस्मित करने लगा। लोगों ने उसे भोजन के लिए निमन्त्रण दिया। उसने निमंत्रण स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। पूछने पर उसने कहा-'मैं सुलसा के यहां भोजन लूंगा।' लोग दौड़े-दौड़े गए और सुलसा को बधाइयां देने लगे। उसने कहा- मुझे पाखंडियों से क्या लेना है। लोगों ने अम्मड से यह बात कही। अम्मड ने कहा--यह परम सम्यग्दृष्टि है। इसके मन में व्यामोह नहीं है। वह तब लोगों को साथ ले सुलसा के घर गया। सुलसा ने उसका स्वागत किया। वह उससे प्रतिबद्ध हुआ। १. सूवकृतांग २७ में यह विवरण प्राप्त है किन्तु वहां सिद्ध, बुद्ध होने की बात नहीं है। अनुत्तरोपपातिक के तीसरे वर्ग के आठवें अध्ययन में पेढालपुत्त का वर्णन है। वहां उनका स्वार्थसिद्ध में उपपात, वहां से महाविदेह में सिद्ध होने की बात कही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy