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________________ ठाणं (स्थान) ८८५ स्थान : टि०१६ लिए कहा है। वह मुझे दो।' सुलसा खुशी-खुशी घर में गई और तैल का पात्र उतारने लगी। देव-माया से वह गिरकर टूट गया। दूसरा और तीसरा पात्र भी गिरकर टूट गया। फिर भी सुलसा को कोई खेद नहीं हुआ । साधुरूप देव ने यह देखा और प्रसन्न होकर उसे बत्तीस गुटिकाएं देते हुए कहा-'प्रत्येक गुटिका के सेवन से तुम्हें एक-एक पुत्र होगा।' विशेष प्रयोजन पर तुम मुझे याद करना । मैं आ जाऊंगा।' यह कहकर देव अन्तर्हित हो गया। सुलसा ने-'सभी गुटिकाओं से मुझे एक ही पूत्र हो'-ऐसा सोचकर सभी गुटिकाएं एक साथ खा ली। अब उदर में बत्तीस पुत्र बढ़ने लगे। उसे असह्य वेदना होने लगी। उसने कायोत्सर्ग कर देव का स्मरण किया, देव आया । सुलसा ने सारी बात कह सुनाई। देव ने पीड़ा शान्त की। उसके बत्तीस पुब हुए। रेवती-एक बार भगवान् महावीर में ढिकग्राम नगर में आए। वहां उनके पित्तज्वर का रोग उत्पन्न हुआ और वे अतिसार से पीड़ित हुए। यह जनप्रवाद फैल गया कि भगवान महावीर गोशालक की तेजोलेश्या से आहत हुए हैं और छह महीनों के भीतर काल कर जाएंगे। भगवान् महावीर के शिष्य मुनि सिंह ने अपनी आतापना तपस्या संपन्न कर सोचा--'मेरे धर्माचार्य भगवान् महावीर पित्तज्वर से पीड़ित हैं। अन्यतीथिक यह कहेंगे कि भगवान् गोशालक की तेजोलेश्या से आहत होकर मर रहे हैं। इस चिंता से अत्यन्त दुखित होकर मुनि सिंह मालुकाकच्छ वन में गए और सुबक-सुबक कर रोने लगे। भगवान् ने यह जाना और अपने शिष्यों को भेजकर उसे बुलाकर कहा-'सिंह ! तूने जो सोचा है वह यथार्थ नहीं है। मैं आज से कुछ कम सोलह वर्ष तक केवली पर्याय में रहूंगा। जा, तू नगर में जा। वहां रेवती नामक श्राविका रहती है। उसने मेरे लिए दो कुष्माण्डफल पकाए हैं। वह मत लाना। उसके घर बिजोरापाक भी बना है। वह वायुनाशक है। उसे ले आना। वही मेरे लिए हितकर है।' सिंह गया। रेवती ने अपने भाग्य की प्रशंसा करते हुए, मुनि सिंह ने जो मांगा, वह दे दिया। सिंह स्थान पर आया, महावीर ने बिजोरापाक खाया। रोग उपशान्त हो गया। आगामी चौवीसी में इनका स्थान इस प्रकार होगा१. श्रेणिक का जीव पद्मनाभ नाम के प्रथम तीर्थंकर । २. सुपार्श्व का जीव सूरदेव नाम के दूसरे तीर्थकर । ३. उदायी का जीव सुपार्श्व नाम के तीसरे तीर्थंकर । ४. पोट्टिल का जीव स्वयंप्रभ नाम के चौथे तीर्थंकर । ५. दृढायु का जीव सर्वानुभूति नाम के पांचवें तीर्थकर। ६. शंख का जीव उदय नाम के सातवें तीर्थकर । ७. शतक का जीव शतकीति नाम के दसवें तीर्थकर। ८. सुलसा का जीव निर्ममत्व नाम के पन्द्रहवें तीर्थंकर। इनमें से शंख और रेवती का वर्णन भगवती में प्राप्त है परन्तु वहां इनके भावी तीर्थकर होने का उल्लेख नहीं है। इनके कथानकों से यह स्पष्ट नहीं होता कि उनके तीर्थकरगोत्र बंधन के क्या-क्या कारण हैं। १६. (सू० ६१) उदकपेढालपुत्त-इनका मूल नाम उदक और पिता का नाम पेढाल था। ये उदकपेढालपुत्त के नाम से प्रसिद्ध थे। ये वाणिज्य ग्राम के निवासी थे। ये भगवान् पार्श्व की परम्परा में दीक्षित हुए। एक बार ये नालन्दा के उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित हस्तिद्वीपवनषण्ड में ठहरे हुए थे। इन्हें श्रावक विषय पर विशेष संशय उत्पन्न हुआ। गणधर गौतम से संशय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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