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ori (स्थान)
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स्थान : टि०१८
किसी राजा का पुत्र होना चाहिए। सैनिक उसकी तलाश में गए, परन्तु वह नहीं मिला। राजा और आचार्य का दाहसंस्कार हुआ।
वह उदायीमारक श्रमण उज्जयिनी में गया और राजा से सारा वृतान्त कहा। राजा ने कहा – 'अरे दुष्ट ! इतने समय तक का श्रामण्य पालन करने पर भी तेरी जघन्यता नहीं गई ? तूने ऐसा अनार्य कार्य किया ? तेरे से मेरा क्या हित सध सकता है । चला जा तू मेरी आंखों के सामने मत रह ।' राजा ने उसकी अत्यन्त भर्त्सना की और उसे देश से निकाल डाला।
४ पोट्टिल अनगार - अनुत्तरोपपातिक में पोट्टिल अनगार की कथा है। उसके अनुसार ये हस्तिनागपुर के वासी थे। इनकी माता का नाम भद्रा था । इन्होंने बत्तीस पत्नियों को त्याग कर भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। अन्त में एक मास की संलेखना कर सर्वार्थसिद्ध में उत्पन्न हुए। वहाँ से च्युत होकर महाविदेह क्षेत्र में सिद्ध हो गए। परन्तु प्रस्तुत प्रसंग में उनके भरत क्षेत्र में सिद्ध होने की बात कही है। इससे लगता है कि ये अनगार कोई अन्य हैं ।
५ दृढायु - इनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है ।
६, ७ शंख तथा शतक - ये दोनों श्रावस्ती नगरी के श्रावक थे। एक बार भगवान् महावीर श्रावस्ती पधारे और Anta चैत्य में ठहरे। अनेक श्रावक-श्राविकाएं वन्दन करने आईं। भगवान् का प्रवचन सुना और सब अपने-अपने घर की ओर चले गए। रास्ते में शंख ने दूसरे श्रावकों से कहा-'देवानुप्रियो ! घर जाकर आहार आदि विपुल सामग्री तैयार करो । हम उसका उपभोग करते हुए पाक्षिक पर्व की आराधना करते हुए विहरण करेंगे।' उन्होंने उसे स्वीकार किया। बाद में शंख ने सोचा --- अशन आदि का उपभोग करते हुए पाक्षिक पौषध की आराधना करना मेरे लिए श्रेयस्कर नहीं है। मेरे लिए श्रेयस्कर यही होगा कि मैं प्रतिपूर्ण पौषध करूं ।'
वह अपने घर गया और अपनी पत्नी उत्पला को सारी बात बताकर पौषधशाला में प्रतिपूर्ण पौषध कर बैठ गया । इधर दूसरे श्रावक घर गए और भोजन आदि तैयार करा कर एक स्थान में एकत्रित हुए। वे शंख की प्रतीक्षा में बैठे थे। शंख नहीं आया तब शतक' को उसे बुलाने भेजा । पुष्कली शंख के घर आया और बोला- 'भोजन तैयार है । चलो, हम सब साथ बैठकर उसका उपभोग करें और पश्चात् पाक्षिक पौषध करें ।' शंख ने कहा- 'मैं अभी प्रतिपूर्ण पौषध कर चुका हूं अतः मैं नहीं चल सकता।' पुष्कली ने लौटकर श्रावकों को सारी बात कही । श्रावकों ने पुष्कली के साथ भोजन किया ।
प्रातःकाल हुआ । शंख भगवान् के चरणों में उपस्थित हुआ। भगवान् को वन्दना कर वह एक स्थान पर बैठ गया । दूसरे श्रावक भी आए । भगवान् को वन्दना कर उन सबने धर्मप्रवचन सुना ।
पश्चात् वे शंख के पास आकर बोले- इस प्रकार हमारी अवहेलना करना क्या आपको शोभा देता है ? भगवान् ने यह सुन उनसे कहा --शंख की अवहेलना मत करो। यह अवहेलनीय नहीं है। यह प्रियधर्मा और दृढ़धर्मा है । यह सुदृष्टि जागरिका' में स्थित है। *
सुलसा -- राजगृह में प्रसेनजित नामका राजा राज्य करता था। उसके रथिक का नाम नाग था। सुलसा उसकी भार्या थी । नाग सुलसा से पुत्र प्राप्ति के लिए इन्द्र की आराधना करता था। एक बार सुलसा ने उससे कहा- तुम दूसरा विवाह कर लो।' नाग ने कहा- 'मैं तुम्हारे से ही पुत्र चाहता हूं
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एक बार देवसभा में सुलसा के सम्यक्त्व की प्रशंसा हुई। एक देव उसकी परीक्षा करने साधु का वेश बनाकर आया । सुलसा ने उसके आगमन का कारण पूछा। साधु ने कहा – 'तुम्हारे घर में लक्षपाक तैल है । वैद्य ने मुझे उसके सेवन के
१. परिशिष्ट पर्व, सर्ग ६, पृष्ट १०४ १०६ । २. वृत्तिकार ने शतक की पहचान पुष्कली से की है( स्थानांगवृत्ति पत्र ४३२ पुष्कली नामा श्रमणोपासकः शतक इत्यपरनाम) भगवती ( १२1१ ) में पुष्कली का शतक नाम प्राप्त नहीं है । वृत्तिकार के सामने इसका क्या आधार रहा है, यह कहा नहीं जा सकता ।
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३. जागरिकाएं तीन हैं
१. बुद्ध जागरिका - केवली की जागरणा ।
२. अबुद्ध जागरिका छद्मस्थ मुनियों की जागरणा ।
३. सुदृष्टि जागरिका -- श्रमणोपासकों की जागरणा । ४. विशेष विवरण के लिए देखें- भगवती १२१२०, २१ ।
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