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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि०१८
१८. (सू० ६०)
भगवान महावीर के तीर्थ में तीर्थकर गोन बांधने वाले नौ व्यक्ति हुए हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है
१. श्रेणिक-ये मगध देश के राजा थे। इनका विस्तृत विवरण निरयावलिका सूत्र में प्राप्त है। ये आगामी चौबीसी में पद्मनाम नाम के प्रथम तीर्थकर होंगे।
२. सुपार्श्व-..ये भगवान महावीर के चाचा थे। इनके विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं है। ये आगामी चौबीसी में सूर देव नाम के दूसरे तीर्थकर होंगे।
३. उदायी-यह कोणिक का पुत्र था। उसने अपने पिता की मृत्यु के बाद पाटलीपुत्र नगर बसाया और वहीं रहने लगा। जैन धर्म के प्रति उसकी परम आस्था थी। वह पर्व-तिथियों में पौषध करता और धर्म-चिन्ता में समय व्यतीत करता था। धार्मिक होने के साथ-साथ वह अत्यन्त पराक्रमी भी था। उसने अपने तेज से सभी राजाओं को अपना सेवक बना दिया था। वे राजा सदा यही चिंतन करते कि उदायी राजा जीवित रहते हुए हम सुखपूर्वक स्वच्छंदता से नहीं जी सकते।
एक बार किसी एक राजा ने कोई अपराध कर डाला। उदायी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर उसका राज्य छीन लिया। राजा वहां से पलायन कर शरण पाने अन्यत्र जा रहा था। बीच में ही उसकी मृत्यु हो गई। उसका पुत्र भटकता हुआ उज्जयिनी नगरी में गया और राजा के पास रहने लगा। अवन्तीपति भी उदायी से क्रुद्ध था। दोनों ने मिलकर उदायी को मार डालने का षड्यन्त्र रचा।
वह राजपुत्र उज्जयिनी से पाटलीपुत्र आया और उदायी का सेवक बन रहने लगा। उदायी को यह मालूम नहीं था कि यह उसके शत्रु राजा का पुत्र है । वह राजकुमार उदायी का छिद्रान्वेषण करता रहा परन्तु उसे कोई छिद्र न मिला।
उसने जैन मुनियो को उदायी के प्रासाद में बिना रोक-टोक आते-जाते देखा। उसके मन में भी राजकुल में स्वच्छन्द प्रवेश पाने की लालसा जाग उठी। वह एक जैन आचार्य के पास प्रवजित हो गया। अब वह साधु-आचार का पूर्णत: पालन करने लगा। उसकी आचारनिष्ठा और सेवाभावना से आचार्य का मन अत्यन्त प्रसन्न रहने लगा। वे इससे अति प्रभावित हुए। किसी ने उसकी कपटता को नहीं आंका।
महाराज उदायी प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशी को पौषध करते थे और आचार्य उसको धर्मकथा सुनाने के लिए पास में रखते थे।
एक बार पौषध दिन में आचार्य सायंकाल उदायो के निवास-स्थान पर गए। वह प्रव्रजित राजपुत्र भी आचार्य के उपकरण ले उनके साथ गया। उदायी को मारने की इच्छा से उसने अपने पास एक तीखी कैची रख ली थी। किसी को इसका भेद मालूम नहीं था। वह साथ-साथ चला और उदायी के समीप अपने आचार्य के साथ बैठ गया।
आचार्य ने धर्मप्रवचन किया और सो गए। महाराज उदायी भी थक जाने के कारण वहीं भूमि पर सो गए। वह मुनि जागता रहा। रौद्र ध्यान में वह एकाग्र हो गया और अवसर का लाभ उठाते हुए अपनी कैची राजा के गले पर फेंक दी। राजा का कोमल कंठ छिद गया। कंठ से लहु बहने लगा।
वह पापी श्रमण वहां से बाहर चला गया । पहरेदारों ने भी उसे श्रमण समझकर नहीं रोका।
रक्त की धारा बहते-बहते आचार्य के संस्तारक तक पहुंच गई। आचार्य उठे। उन्होंने कटे हुए राजा के गले को देखा। वे अवाक रह गए। उन्होंने शिष्य को वहाँ न देखकर सोचा-'उस कपटी श्रमण का ही यह कार्य होना चाहिए, इसीलिए वह कहीं भाग गया है।' उन्होंने मन ही मन सोचा-'राजा की इस मृत्यु से जैन शासन कलकित होगा और सभी यह कहेंगे कि एक जैन आचार्य ने अपने ही श्रावक राजा को मार डाला। अतः मैं प्रवचन की ग्लानि को मिटाने के लिए अपने आप की घात कर डालू । इससे यह होगा कि लोग सोचेंगे-राजा और आचार्य को किसी ने मार डाला। इससे शासन बदनाम नहीं होगा।'
आचार्य ने अन्तिम प्रत्याख्यान कर उसी कैची से अपना गला काट डाला। प्रातःकाल सारे नगर में यह बात फैल गई कि राजा और आचार्य की हत्या उस शिष्य ने की है। वह कपटवेशधारी
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