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ठाणं (स्थान)
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स्थान ६ : टि०१६-१७
१६. (सू० ३४)
कृष्णराजी, मघा आदि आठ कृष्णराजिओं के आठ अवकाशान्तरों में आठ लोकान्तिकविमान हैं[स्था० ८।४४, ४५] इनमें सारस्वत आदि आठ लोकान्तिक देव रहते हैं। नौंवा देवनिकाय रिष्ट लोकान्तिक देव कृष्णराजि के मध्यवर्ती रिष्टाभविमान के प्रस्तट में निवास करते हैं। ये नौ लोकान्तिक देव हैं। ये ब्रह्म देवलोक के समीप रहते हैं अतः इन्हें लोकान्तिक देव कहा जाता है। इनकी स्थिति आठ सागरोपम की होती है और ये सात-आठ भव में मुक्त हो जाते हैं। तीर्थकर की प्रव्रज्या से एक वर्ष पूर्व ये स्वयंसंबद्ध भगवान से अपनी रीति को निभाने के लिए कहते हैं-'भगवन् ! समस्त जीवों के हित के लिए आप अब तीर्थ का प्रवर्तन करें।'
१७. (सू० ४०)
आयुष्य के साथ इतने प्रश्न और जुड़े हुए होते हैं कि-- (१) जीव किस गति में जायेगा? (२) वहां उसकी स्थिति कितनी होगी? (३) वह ऊंचा, नीचा या तिरछा -कहां जायेगा?
(४) वह दूरवर्ती क्षेत्र में जायेगा या निकटवर्ती क्षेत्र में ? इन चार प्रश्नों में आयु परिणाम के नौ प्रकार समा जाते हैं, जैसे—प्रश्न १ में (१, २) प्रश्न २ में (३, ४), प्रश्न ३ में (५, ६, ७) प्रश्न ४ में (८, ६)। जब अगले जीवन के आयुष्य का बन्ध होता है तब इन सभी बातों का भी उसके साथ-साथ निश्चय हो जाता है।
वृत्तिकार ने परिणाम के तीन अर्थ किए हैं—स्वभाव, शक्ति और धर्म । आयुष्य कर्म के परिणाम नौ हैं(१) गति परिणाम-इसके माध्यम से जीव मनुष्यादि गति को प्राप्त करता है।
(२) गतिबन्धन परिणाम-इसके माध्यम से जीव प्रतिनियत गतिकर्म का बंध करता है, जैसे-जीव नरकायुस्वभाव से मनुष्यगति, तिर्यग्गति नामकर्म का बंध करता है, देवगति और नरकगति का बंध नहीं करता।
(३) स्थिति परिणाम-इसके माध्यम से जीव भवसंबंधी स्थिति (अन्तर्मुहूर्त से तेतीस सागर तक) का बन्ध करता है।
(४) स्थिति बंधन परिणाम —इसके माध्यम से जीव वर्तमान आयु के परिणाम से भावी आयुष्य की नियत स्थिति का बन्ध करता है, जैसे—तिर्यग आयुपरिणाम से देव आयुष्य का उत्कृष्ट बंध अठारह सागर का होता है।
(५) ऊर्ध्वगौरव परिणाम-गौरव का अर्थ है गमन । इसके माध्यम से जीव ऊर्व-गमन करता है। (६) अधोगौरव परिणाम-इसके माध्यम से जीव अधोगमन करता है। (७) तिर्यग् गौरव परिणाम- इसके माध्यम से जीव को तिर्यक् गमन की शक्ति प्राप्त होती है। (८) दीर्घगौरव परिणाम—इसके माध्यम से जीव लोक से लोकान्त पर्यन्त दीर्घगमन करता है। (E) हस्वगौरव परिणाम- इसके माध्यम से जीव हस्वगमन (थोड़ा गमन) करता है।
वृत्तिकार ने यहां 'अन्यथाप्युह्यमेतद्'-इसकी दूसरे प्रकार से भी व्याख्या की जा सकती है—कहा है। वह दूसरा प्रकार क्या है, यह अन्वेषणीय है।
यहां गति शब्द का वाच्यार्थ किया जाए तो ये परिणाम परमाणु आदि पर भी घटित हो सकते हैं।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३० ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४३० : परिणाम:-स्वभावः शक्तिः धर्म
इति ।
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