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ठाणं (स्थान)
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स्थान :: टि० १५
१. संख्यान-गणितशास्त्र या गणितशास्त्र का सूक्ष्म ज्ञानी । २. निमित्त-चूडामणि आदि निमित्त शास्त्रों का ज्ञाता । ३. कायिक-शरीर में रहे हुए इडा, पिंगला आदि प्राण-तत्त्वों का विशिष्ट ज्ञाता।
४. पौराणिक-—बहुत वृद्ध होने के कारण बहुविध बातों का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति अथवा पुराणशास्त्रों का विशिष्ट ज्ञानी।
५. पारिहस्तिक-प्रकृति से ही सभी कार्यों को उचित समय में दक्षता से करने वाला। ६. परपंडित-बहुत शास्त्रों को जानने वाला अथवा पंडित मित्रों के घने संपर्क में रहने वाला। ७. वादी--बाद करने की लब्धि से सम्पन्न अथवा मंत्रवादी, धातुवादी (रसायनशास्त्र को जानने वाला)। ८. भूतिकर्म –मंत्रित राख आदि देकर ज्वर आदि को दूर करने में निपुण। ६. चैकित्सिक-विविध रोगों की चिकित्सा में निपुण ।'
१५. नौ गण (सू० २६)
यह विषय मुलत: कल्पसूत्र में प्रतिपादित है। नौ की संख्या के अनुरोध से इसे आगमन-संकलन काल में प्रस्तुत सूत्र में संकलित किया गया है।
एक सामाचारी का पालन करने वाले साधु-समुदय को गण कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में नौ गणों का उल्लेख है
१. गोदासगण–प्राचीन गोत्री आर्य भद्रबाहु स्थविर के चार शिष्य थे-गोदास, अग्निदत्त, यज्ञदत्त और सोमदत्त। गोदास काश्यपगोत्री थे। उन्होंने गोदास गण की स्थापना की। इस गण से चार शाखाएं निकलीं-तामलिप्तिका, कोटिवषिका, पांडुवर्द्धनिका और दासीखर्वटिका।
२. उत्तरबलिस्सहगण-माठरगोत्री आर्य संभूतविजय के बारह शिष्य थे। उनमें आर्य स्थूलभद्र एक थे। इनके दो शिष्य हुए-आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती। आर्य महागिरि के आठ शिष्य हुए, उनमें स्थविर उत्तर और स्थविर बलिस्सह दो थे। दोनों के संयुक्त नाम से 'उत्तरबलिस्सह' नाम के गण की उत्पत्ति हुई।
३. उद्देहगण-आर्य सुहस्ती के बारह अंतेवासी थे। उनमें स्थविर रोहण भी एक थे। ये काश्यपगोत्री थे। इनसे 'उद्देहगण' की उत्पत्ति हुई।
४. चारणगण-स्थविर श्रीगुप्त भी आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये हारित गोत्र के थे। इनसे चारणगण की उत्पत्ति हुई।
५. उडुपाटितगण-स्थविर जशभद्र आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये भारद्वाजगोत्री थे। इनसे उडुपाटितगण की उत्पत्ति हुई।
६. वेशपाटितगण-स्थविर कामिट्ठी आर्य सुहस्ती के शिष्य थे। ये कुंडिलगोत्री थे। इनसे वेशपाटितगण की उत्पत्ति हुई।
७. कामद्धिकगण-यह वेशपाटितगण का एक कुल था। ८. मानवगण-आर्य सुहस्ती के शिष्य ऋषिगुप्त ने इस गण की स्थापना की। ये वाशिष्टगोत्री थे। ६. कोटिकगण-स्थविर सुस्थित और सुप्रतिबद्ध से इस गण की उत्पत्ति हुई।
प्रत्येक गण की चार-चार शाखाएं और उद्देह आदि गणों के अनेक कुल थे। इनकी विस्तृत जानकारी के लिए देखेंकल्पसूत्र, सुत्र २०६-२१६ ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्न ४२८ ।
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