SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 921
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) स्थान : टि० १३-१४ ४. कढ़ाही में निष्पन्न सुकुमारिका [ मिष्टान्न ] को निकालने के पश्चात् उसी कढ़ाही में घी या तेल लगा हुआ रह जाता है । उसमें पानी डालकर सिझाई हुई लपसी ( लपनश्री) विकृतिगत है। ५. घी या तेल से संश्लिष्ट बर्तन में पकाई हुई पूपिका । वृत्तिकार का अभिमत है कि यद्यपि खीर आदि द्रव्य साक्षात् विकृतियां नहीं हैं, किन्तु विकृतिगत हैं। फिर भी ये विशेष पदार्थ हैं तथा ये भी मनोविकार पैदा करते हैं। जो निर्विकृतिक की साधना करते हैं उनके लिए ये कल्प्य हैं, परन्तु इनके सेवन से उनके कोई विशेष निर्जरा नहीं होती। अतः निविकृतिक तप करनेवाले इनका सेवन नहीं करते । जो व्यक्ति विविध तपस्याओं से अपने आप को अत्यन्त क्षीण कर चुका है, वह यदि स्वाध्याय, अध्ययन आदि करने में असमर्थ हो तो वह इन विकृतिगत का आसेवन कर सकता है। उसके महान् कर्म - निर्जरा होती है । विकृति विषयक वह परंपरा काफी प्राचीन प्रतीत होती है। प्रवचनसारोद्धार ग्यारहवीं शताब्दी की रचना है, किन्तु यह परम्परा तत्कालीन नहीं है । ग्रन्थकार ने इसका वर्णन आवश्यक चूर्णि ( उत्तर भाग, पृष्ठ ३१६, ३२०) के आधार पर किया है। इसकी रचना लगभग चार शताब्दी पूर्व की है। यह परंपरा उससे भी प्राचीन रही है । वर्तमान में विकृति संबंधी मान्यताओं में बहुत परिवर्तन हो चुका है। ८८० १३. पापश्रुतप्रसंग ( सू० २७ ) प्रस्तुत सूत्र में नौ पापश्रुत प्रसंगों का उल्लेख है। जो शास्त्र पापबन्ध का हेतु होता है, उसे पापश्रुत कहा जाता है । प्रसंग का अर्थ है आसेवन' या उसका विस्तार । समवायांग २६।१ में उनतीस पापश्रुत प्रसंगों का उल्लेख है। वहां मूल में आठ पापश्रुत प्रसंग माने हैं-भौम, उत्पात, स्वप्न, अन्तरिक्ष अंग, स्वर, व्यंजन और लक्षण । यह अष्टांग निमित्त है । इनके सूत्र, वृत्ति और वार्तिक के भेद से २४ प्रकार होते हैं। शेष पांच अन्य हैं। परन्तु प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित नौ नाम इससे सर्वथा भिन्न हैं। ऐसे तो समवायांग में उल्लिखित 'निमित्त' के अन्तर्गत ये सारे आ जाते हैं। फिर भी दोनों उल्लेखों में बहुत बड़ा अन्तर है । वृत्तिकार ने प्रसंग का एक अर्थ विस्तार किया है और वहां सूत्र, वृत्ति और वार्तिक का संकेत दिया है। यदि हम यहां प्रत्येक के ये तीन-तीन भेद करें तो [ex ३] २७ भेद होते हैं । वृत्तिकार ने तद्-तद् पापश्रुत प्रसंगों के ग्रन्थों का भी नामोल्लेख किया है ' १. उत्पाद - राष्ट्रोत्पात आदि ग्रन्थ । २. निमित्त -- कूटपर्वत आदि ग्रन्थ । ३. मंत्र - जीवोद्धरण गारुड आदि ग्रन्थ । ४. आवरण -- वास्तुविद्या आदि ग्रन्थ । ५. अज्ञान - भारत, काव्य, नाटक आदि ग्रन्थ । विस्तृत टिप्पण के लिए देखें - समवायांग, २६, टिप्पण १ । १४. नैपुणिक ( सू० २८ ) निपुण का अर्थ है - सूक्ष्मज्ञान । जो सूक्ष्मज्ञान के धनी हैं उन्हें नैपुणिक कहा जाता है। इसका दूसरा अर्थ है-अनुप्रवाद नामक नौवें पूर्व के इन्हीं नामों के नौ अध्ययन ।' १. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति, पत्र ५५, ५६ । २. प्रवचनसारोद्धार, गाथा २३५: आवस्सय चुण्णीए परिभणियं एत्थ वण्णियं कहियं । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र, ४२८ प्रसङ्गः - तथासेवारूप: 1 ४. वही पत्र ४२८ : प्रसङ्गः विस्तरो वा सूत्रवृत्तिवार्तिक रूप: : Jain Education International ५. वही, पत्र ४२८ । ६. वही, पत्र ४२८ : निपुर्ण सूक्ष्मज्ञानं पुरुषा अनुप्रवादाभिधानस्य इत्यर्थः । ..... अथवा अध्ययन विशेषा एवेति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy