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________________ ठाणं (स्थान) ८३६ स्थान ८: टि० ३५-४६ योजन भी भिन्न २ होते हैं। प्रस्तुत विवरण में भी चार गव्यूत का एक योजन माना है। गव्यूत का अर्थ है-वह दूरी जिसमें गाय का रंभाना सुना जा सके। सामान्यतः गाय का रंभाना एक फांग तक सुना जा सकता है। इसके आधार पर चार फर्लाग का एक योजन होता है। कहीं-कहीं एक माइल का भी योजन माना है। ३५-३६. (सू० ६३, ६४) जंबूद्वीप प्रज्ञप्ति के अनुसार ये वृक्ष आधे-आधे योजन भूमि में हैं तथा इनके तने की मोटाई आधे-आधे योजन की है। इस आधे-आधे योजन के कारण ही ऊंचाई या चौड़ाई में सातिरेक' शब्द का प्रयोग हुआ है। इसी आधार पर सर्व परिमाण में ये वृक्ष आठ-आठ योजन से कुछ अधिक हैं । ३७-४०. (सू०७७-८०) ___ इन चार सूत्रों के अनुसार आठ-आठ विजयों में आठ-आठ अहंत, चक्रवर्ती, बलदेव और वासुदेव होते हैं, किन्तु अर्हन्त, चक्रवर्ती बलदेव और वासुदेव एक साथ बत्तीस नहीं हो सकते। महाविदेह में कम से कम चार चक्रवर्ती या चार वासुदेव अवश्य होते हैं। जहां वासुदेव होते हैं वहां चक्रवर्ती नहीं होते । इसलिए एक साथ उत्कृष्टतः २८ चक्रवर्ती या २८ वासुदेव हो सकते हैं।' ४१. पारियानिक विमान (सू० १०३) जो गमन के हेतुभूत होते हैं उन्हें पारियानिक विमान कहते हैं। पालक आदि आभियोगिक देव अपने-अपने स्वामी इन्द्रों के लिए स्वयं यान के रूप में प्रयुक्त होते हैं। पूर्वसूत्र (१०२) में उल्लिखित इन्द्रों के ये क्रमश: विमान हैं। ये सारे नाम उनके आभियोगिक देवों के हैं। वे यान रूप में काम आते हैं। अत: उन्हीं के नाम से वे यान भी व्यवहृत होते हैं। दसवें स्थान में इनका विवरण दिया गया है। ४२-४५. चेष्टा, प्रयत्न, पराक्रम, आचार-गोचर (सू० १११) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त कुछ विशेष शब्दों का विमर्श१. संघटना-चेष्टा-अप्राप्त की प्राप्ति। २. प्रयत्न–प्राप्त का संरक्षण । ३. पराक्रम--शक्ति-क्षय होने पर भी विशेष उत्साह बनाए रखना। ४. आचार-गोचर १. साधु के आचार का गोचर [विषय ] महाव्रत आदि । २. आचार-ज्ञान आदि पांच आचार । गोचर-भिक्षाचर्या ।। ४६. केवली समुद्घात (सू० ११४) केवलज्ञानी के वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की स्थिति से आयुष्य कर्म की स्थिति कम रह जाने पर, दोनों को समान करने के लिए स्वभावतः समुद्घात क्रिया होती है-आत्म-प्रदेश समूचे लोक में फैल जाते हैं। इस क्रिया का कालमान ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१८ : घटितव्यं– अप्राप्तेषु योगः कार्यः, यतितव्यं--प्राप्तेषु तदवियोगार्थ यत्नः कार्यः, पराक्रमितव्यंशक्तिक्षयेऽपि तत्पालने, पराक्रमः-उत्साहातिरेको विधेय इति। १. बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ ४१ : Gavyuta, A cow's call. २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१५ । ३. स्थानांग वृत्ति, पत्र ४१७ : परियायते-गम्यते यस्तानि परि यानानि तान्येव परियानिकानि परियानं वा-गमनं प्रयोजनं येषां तानि परियानिकानि यानकारकाभियोगिकपालकादिदेव कृतानि पालकादीनि! ४. स्थानांग १०/१५० ६. वही, पत्र ४१८ : आचार:- साधुसमाचारस्तस्य, गोचरो विषयो व्रतषट्कादिराचारगोचर: अथवा आचारश्चज्ञानादिविषयः पञ्चधा, गोचरश्च -भिक्षाचर्येत्याचारगोचरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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