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________________ ठाणं (स्थान) स्थान ८: टि०४७-४८ आठ समय का है। पहले समय में केवली के आत्म-प्रदेश लोक के अन्त तक ऊर्ध्व और अधो दिशा की तरफ फैल जाते हैं। उनका विष्कंभ (चौड़ाई) शरीर प्रमाण होता है, इसलिए उनका आकार दंड जैसा बन जाता है। दूसरे समय में वे ही प्रदेश चौड़े होकर लोक के अन्त तक जाकर कपाटाकार बन जाते हैं। तीसरे समय में वे प्रदेश वातवलय के सिवाय समूचे लोक में फैल जाते हैं। इसे मन्थान कहते हैं। चौथे समय में वे प्रदेश पूर्ण लोक में फैल जाते हैं-आत्मा लोक व्यापी बन जाती हैं। इसके बाद पांचवें, छठे, सातवें, आठवें समय में आत्मा के प्रदेश क्रमश: मन्थान, कपाट और दण्ड के आकार होकर पूर्ववत् देहस्थित हो जाते हैं। इन आठ समयों में पहले और आठवें समय में औदारिक योग, दूसरे,छठे और सातवें समय में औदारिक मिश्र योग तथा तीसरे, चौथे और पांचवें समय में कार्मण योग होता है। रत्नशेखर सूरि आदि कई बिद्वान यह मानते हैं कि जिस जीव का आयुष्य छह मास से अधिक है, यदि उसे केवलज्ञान हो जाए तो वह जीव निश्चय ही समुद्घात करता है। किन्तु अन्य केवली समुद्घात करते ही हैं- ऐसा नियम नहीं है। आर्यश्याम ने एक स्थान पर कहा है अगंतूण समुग्घायमणंता केवली जिणा। जाइमरणविप्पमुक्का, सिद्धि वरगतिं गया।। अनंत केवली और जिन बिना समुद्घात किये ही जन्म-मरण से विप्रमुक्त हो सिद्ध हो गए। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण का अभिमत इससे भिन्न है। वे कहते हैं कि प्रत्येक जीव मोक्ष प्राप्ति से पूर्व समुद्घात करता ही है। समुद्घात करने के पश्चात् ही केवली योग निरोध कर शैलेशी अवस्था को पाकर, अयोगी होता हुआ पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण करने के समय मात्र में मोक्ष प्राप्त कर लेता है। वैदिकों में प्रचलित आत्म व्यापकता के सिद्धान्त के साथ इसका समन्वय होता है। हेमचन्द्र, यशोविजय आदि विद्वानों ने इसका समन्वय किया है। दिगम्बरों की यह मान्यता है कि केवली समुद्घात करते हैं, किन्तु सैद्धान्तिक मान्यता यह है कि केवली समुदघात करते नहीं, वह स्वतः होती है। समुद्घात करना आलोचनाह क्रिया है। वृत्तिकार ने यहां यह उल्लेख किया है कि तीर्थकर नेमिनाथ के शिष्यों में से किसी ने अघाति कर्मों का आयष्य कर्म के साथ समीकरण करने के लिए केवली समुद्घात किया था। इस उल्लेख से यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या और किसी तीर्थकर के शिष्यों ने समुदघात नहीं किया? यदि किया था तो वृत्तिकार ने महावीर के शिष्यों का उल्लेख क्यों नहीं किया ? संभव है परंपरागत यही घटना प्रचलित रही हो, जिसका कि उल्लेख वृत्तिकार ने किया है। ४७. प्रमर्दयोग (सू० ११६) प्रमर्द योग का अर्थ है--स्पर्श योग। प्रस्तुत सूत्रगत आठ नक्षत्र उभययोगी होते हैं । चन्द्रमा को उत्तर और दक्षिण दोनों ओर से स्पर्श करते हैं। चन्द्रमा इनके बीच से निकल जाता है। .. . ४८. (सू० १२५) तीन इन्द्रिय वाले जीवों की योनियां दो लाख हैं और उनकी कुलकोटियां आठ लाख । योनि का अर्थ है --उत्पत्ति स्थान और कुलकोटि का अर्थ है-उस एक ही स्थान में उत्पन्न होने वाली विविध जातियां। गोबर एक योनि है। उसमें कृमि, कीट, बिच्छ आदि अनेक जातियां उत्पन्न होती हैं, उन्हें कुल कहा जाता है। जैसे- कृमिकूल, कीटकुल, वृश्चिककूल आदि। १. प्रज्ञापना पद ३६ । २. आवश्यक, मलयगिरी वृत्ति पत्र ५३६ में उद्धृत । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१६ : एतेषां च नेमिनाथस्य विनेयानां मध्ये कश्चित्केवली भूत्वा वेदनीवादिकर्मस्थितीनामायकस्थित्या समीकरणार्थ केलिसमुद्घातं कृत्वानिति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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