________________
ठाणं (स्थान)
८३८
स्थान:टि०३४
४ मधुर तृणफलों [?] का एक श्वेत सर्षप। १६ श्वेत सर्षपों का एक धान्यमाषकफल। २ धान्यमाषकफलों की एक गुंजा । ५ गुंजाओं का एक कर्ममाषक। १६ कर्ममाषकों का एक सुवर्ण । ये सारे तोल भरत चक्रवर्ती के समय में प्रचलित थे। यह काकिणीरत्न चार अंगुल प्रमाण का होता है।'
३४. योजन (सू० ६२)
वृत्तिकार ने योजन का विस्तार से माप दिया है। उसके अनुसार. अनन्त निश्चयपरमाणुओं का एक परमाणु । .८ परमाणुओं का एक त्रसरेणु । .८ त्रसरेणुओं का एक रथरेणु। .८ रथरेणुओं का एक बालाग्र । .८ बालारों की एक लिक्षा। .८ लिक्षाओं की एक यूका। .८ यूकाओं का एक यव। .८ यवों का एक अंगुल। . २४ अंगुल का एक हाथ। .४ हाथों का एक धनुष्य। • दो हजार धनुष्यों का एक गव्यूत । • ४ गव्यतों का एक योजन।
प्रस्तुत सूत्र में मगध देश में व्यवहृत योजन का माप बताया है। इसका फलित है कि अन्यान्य देशों में योजन के भिन्न-भिन्न माप प्रचलित थे। जिस देश में सोलह सौ धनुष्यों का एक गव्यूत होता है वहां छह हजार चार सौ [६४००] धनुष्यों का एक योजन होगा। यह सैद्धान्तिक प्रतिपादन है। धनुष्य और योजन के माप के विषय में भिन्नभिन्न मत प्रचलित रहे हैं।
वर्तमान में दक्षिण भारत के मैसूर राज्य में श्रवणबेलगोल में ५७ फुट ऊंची बाहुबली की मूर्ति है । यह माना जाता है कि सम्राट भरत के पुरुदेव ने पौदनपुर के पास ५२५ धनुष्य ऊंची बाहुबली की मूर्ति बनानी चाही। किन्तु स्थान की अनुपयुक्तता के कारण नहीं बना सके। तब चामुण्डराय [सन् १८३] ने उसी प्रमाण की मूर्ति बनाई। इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकलता है कि ५२५ धनुष्य ५७ फुट के बराबर है । इसका फलितार्थ हुआ कि एकफुट लगभग सवा नौ धनुष्य जितना होता है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ८ हजार धनुष्य या ८७० फुट का एक योजन होता है अर्थात् सवा फलांग से कुछ अधिक का एक योजन होता है।
१. स्थानांगवृत्ति पत्र ४१२ : अष्टसौणिक काकणिरत्नं, सुवर्ण
मान तु चत्वारि मधुरतृणफलान्येकः श्वेतसर्षपः षोडश श्वेतसर्षपा एक धान्यमाषकफलं द्वे धान्यमाषकफले एका गुञ्जा पञ्च गुञ्जाः एकः कर्ममाषक: पोडश कर्ममाषका: एकः सुवर्णः, एतानि च मधुरतृणफलादीनि भरतकालभावीनि गृह्यन्ते इदञ्च चतुरङ्गुल प्रमाणं चउरंगुलप्पमाणा सुबन्नवरकागणी नेयत्ति वचनादिति।
२. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१२ : मागधग्रहणात् क्वचिदन्यदपि योजन
स्यादिति प्रतिपादितं, तब यस्मिन् देशे षोडशा भिर्धन:शतर्ग___ ब्यूतं स्यात्तत्र षड्भिः सहस्रश्चतुभिःशतेधनुषां योजनं भवतीति । ३. एपिग्राफिक करनाटिका II, 234, Page 98.
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal use only