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ठाणं (स्थान)
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स्थान ८ : टि० २६-३३
उत्तराध्ययन वृत्ति (नेमिचन्द्रीय, पत्न १७३) में मथुरा नगरी के राजा शंख के प्रवजित होने का उल्लेख है। विपाक के अनुसार काशीराज अलक भगवान् महावीर के पास प्रव्रजित हुए थे।
ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि जब भगवान् पोतनपुर में समवसृत हुए तब शंख, वीर, शिव, भद्र आदि राजाओं ने दीक्षा ग्रहण की थी। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि सभी राजे एक ही दिन दीक्षित हुए थे।
२६. महापद्म (सू० ५२)
आगामी उत्सपिणी में होने वाले प्रथम तीर्थंकर । इनका विस्तृत वर्णन ६।६२ में है।
३०. (सू० ५३)
प्रस्तुत सूत्र में कृष्ण की आठ रानियों का उल्लेख है। इनका विस्तृत वर्णन अन्तकृतदशा में है। एक बार तीर्थंकर अरिष्टनेमि द्वारका में आए । वासुदेव कृष्ण के पूछने पर उन्होंने द्वारका के दहन का कारण बताया। तब कृष्ण ने नगर में यह घोषणा करवाई कि 'अरिष्टनेमि ने नगरी का विनाश बताया है। जो कोई व्यक्ति दीक्षित होगा, मैं उसके अभिनिष्क्रमण का सारा भार वहन करूंगा।' यह सुनकर कृष्ण की आठों रानियां भगवान् के पास दीक्षित हो गईं। वे बीस वर्ष तक संयम पर्याय का पालन कर, एक मास की संलेखना कर मुक्त हुई।
३१. (सू०५५)
प्रस्तुत सूत्र में गति के प्रथम पांच प्रकार एक वर्ग के हैं और अन्तिम तीन प्रकार दूसरे वर्ग के हैं। द्वितीय वर्ग में गति का अर्थ है-एक स्थान से दूसरे स्थान में जाना।
गुरुगति
परमाणु आदि की स्वाभाविक गति। इसी गति के कारण परमाणु व सूक्ष्म स्कंध किसी बाह्य प्रेरणा के बिना ऊंचे, नीचे और तिरछे लोक में गति करते हैं।
प्रणोदनगतिदूसरे की प्रेरणा से होने वाली गति-जैसे—मनुष्य आदि के द्वारा प्रक्षिप्त बाण आदि की गति । प्राग्भारगति
दूसरे द्रव्यों से आक्रान्त होने पर होनेवाली गति । जैसे–नौका में भरे हुए माल से उसकी (नौका की) नीचे की ओर होने वाली गति ।
३२. (सू० ५६)
वृत्तिकार के अनुसार ये चारों भरत और ऐरवत की नदियां हैं। इनकी अधिष्ठात देवियों के निवासद्वीप तद्तद् नदियों के प्रपातकुंड के मध्यवर्ती द्वीप हैं।'
३३. सुवर्ण (सू० ६१)
प्रस्तुत सूत्र में काकिणीरत्न का विवरण दिया गया है। वह आठ सुवर्ण जितना भारी होता है। 'सुवर्ण' उस समय का तोल था । उसका विवरण इस प्रकार है
१. श्री गुणचन्द महावीरचरित्त, प्रस्ताव ८, पत्र ३३७ :
पत्तो पोयणपुरं, तहिं च संखवीरसिवभद्दपमुहा नरिंदा दिक्खा गाहिया ।' २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४१०, ४११ ।
३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४११, ४१२ । ४. स्थानांगवृत्ति पन, ४१२ : नवरं गङ्गाद्या भरतैरवतनद्यस्त
दधिष्ठातृदेवीनां निवासद्वीपा गङ्गादिप्रपातकुण्डमध्यत्तिनः ।
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