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________________ ( २१ ) और मेरे सहयोगी साधु-साध्वियों की असमर्थ अंगुलियों द्वारा कराने का प्रयत्न किया है। सम्पादन-कार्य में हमें आचार्यश्री का आशीर्वाद ही प्राप्त नहीं है किन्तु मार्ग-दर्शन और सक्रिय योग भी प्राप्त है। आचार्यवर ने इस कार्य को प्राथमिकता दी है और इसकी परिपूर्णता के लिए अपना पर्याप्त समय दिया है । उनके मार्ग-दर्शन, चिन्तन और प्रोत्साहन का संबल पा हम अनेक दुस्तर धाराओं का पार पाने में समर्थ हुए हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ ठाणं का सानुवाद संस्करण है। आगम साहित्य के अध्येता दोनों प्रकार के लोग हैं, विद्वद्जन और साधारण जन । मूल पाठ के आधार पर अनुसंधान करने वाले विद्वानों के लिए मूल पाठ का सम्पादन अंगसुत्ताणि भाग १ में किया गया। प्रस्तुत संस्करण में मूल पाठ, संस्कृत छाया, हिन्दी अनुवाद और टिप्पण हैं और टिप्पणों के सन्दर्भस्थल भी उपलब्ध है। प्रस्तुत ग्रन्य की भूमिका बहुत ही लघुकाय है। हमारी परिकल्पना है कि सभी अंगों और उपांगों की बृहद् भूमिका एक स्वतन्त्र पुस्तक के रूप में हो। संस्कृत छाया संस्कृत छाया को हमने वस्तुत: छाया रखने का ही प्रयत्न किया है। टीकाकार प्राकृत शब्द की व्याख्या करते हैं अथवा उसका संस्कृत पर्यायान्तर देते हैं। छाया में वैसा नहीं हो सकता। हिन्दी अनुवाद और टिप्पण 'ठाणं' का हिन्दी अनुवाद मूलस्पर्शी है। इसमें कोरे शब्दानुवाद की-सी विरसता और जटिलता नहीं है तथा भावानुवाद जैसा विस्तार भी नहीं है। सूत्र का आशय जितने शब्दों में प्रतिबिम्बित हो सके, उतने ही शब्दों की योजना करने का प्रयत्न किया गया है। मूल शब्दों की सुरक्षा के लिए कहीं-कहीं उनका प्रचलित अर्थ कोष्ठकों में दिया गया है। सूत्रगत-हार्द की स्पष्टता टिप्पणों में की गई है। वि० सं० २०१७ के चैत्र में अनुवाद कार्य शुरू हुआ। आचार्यश्री बाडमेर की यात्रा में पधारे और हम लोग जोधपुर में रहे। आचार्यश्री जोधपुर पहुंचे तब तक, तीन मास की अवधि में, हमारा अनुबाद कार्य सम्पन्न हो गया। उस समय कुछ विशिष्ट स्थलों पर टिप्पण लिखे। व्यापक स्तर पर टिप्पण लिखने की योजना भविष्य के लिए छोड़ दी गई। वर्षों तक वह कार्य नहीं हो सका । अन्यान्य आगमों के कार्य में होने वाली व्यस्तता ने इस कार्य को अवकाश नहीं दिया। वि० सं० २०२७ रायपुर में मुनि दुलहराजजी ने अवशिष्ट टिप्पण लिखे और प्रस्तुत सूत्र का कार्य पूर्णतः सम्पन्न हो गया। किन्तु कोई ऐसा ही योग रहा कि प्रस्तुत आगम प्रकाश में नहीं आ सका। भगवान् महावीर की पचीसवीं निर्वाण शताब्दी के वर्ष में जैन विश्व भारती ने अंगसूत्ताणि के तीन भागों के साथ इसका प्रकाशन भी शुरू किया। वे तीन भाग प्रकाशित हो गए। इसके प्रकाशन में अवरोध आते गए। न जाने क्यों ? पर यह सच है कि अवरोधों की लम्बी यात्रा के बाद प्रस्तुत ग्रन्थ जनता तक पहुंच रहा है। इस सम्पादन में हमने जिन ग्रन्थों का उपयोग किया है उनके लेखकों के प्रति हम हार्दिक कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। प्रस्तुत सम्पादन में सहयोगी प्रस्तुत आगम के अनुवाद और टिप्पण-लेखन में मुनि सुखलाल जी, मुनि श्रीचन्द्रजी और मुख्यतया मुनि दुलहराजजी ने बड़ी तत्परता से योग दिया है । इसकी संस्कृत छाया में मुनि दुलीचन्दजी 'दिनकर' का योगदान रहा है। मुनि हीरालाल जी ने संस्कृत छाया, प्रति-शोधन आदि प्रवृत्तियों में अथक परिश्रम किया है। विषयानुक्रम और प्रयुक्त-ग्रन्थ सूची मुनि टून राज जी ने तैयार की है। विशेषनामानुक्रम का परिशिष्ट मुनि हीरालालजी ने तैयार किया है। अंगसुत्ताणि' भाग १ में प्रस्तुत सूत्र का संपादित पाठ प्रकाशित है। इसलिए इस संस्करण में पाठान्तर नहीं दिए गए हैं। पाठान्तरों तथा तत्संबंधी अन्य सूचनाओं के लिए 'अंगसुत्ताणि' भाग १ द्रष्टव्य है। प्रस्तुत सूत्र के पाट-संपादन में मूनि सुदर्शनजी, मुनि मधुकरजी और मुनि हीरालालजी सहयोगी रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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