________________
ठाणं (स्थान)
७६६
स्थान ७ : टि० ३५-३६
में से प्रथम दो - परिभाषा और मंडलबंध -- भगवान् ऋषभ ने प्रवर्तित की और अन्तिम दो चक्रवर्ती भरत के माणवक निधि से उत्पन्न हुई तथा वे चारों भरत के शासनकाल में प्रचलित रहीं।' आवश्यक हारिभद्रीय वृत्ति में चारों दंडनीतियों को भरत द्वारा ही प्रवर्तित माना है। यह भी माना गया है कि बंध - बेड़ी का प्रयोग और घात-डंडे का प्रयोग ऋषभ के राज्य में प्रवृत्त हुए तथा मृत्युदंड भरत के राज्य से चला ।'
३५-३६. (सू० ६७, ६८ ) :
प्रस्तुत दो सूत्रों में चक्रवर्ती के सात एकेन्द्रिय रत्न और सात पञ्चेन्द्रिय रत्नों का उल्लेख है ।
इन्हें रत्न इसलिए कहा गया है कि ये अपनी-अपनी जाति के सर्वोत्कृष्ट होते हैं ।
आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर से बने हुए होते हैं, इसलिए इन्हें एकेन्द्रिय कहा जाता है । इन सातों का प्रमाण इस प्रकार है ५ चक्र, छत और दंड – ये तीनों व्याम'-तुल्य हैं--तिरछे फैलाए हुए दोनों हाथों की अंगुलियों के अंतराल जितने बड़े हैं । चर्म दो हाथ लम्बा होता है। असि बत्तीस अंगुल का, मणि चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है तथा काकिणी की लम्बाई चार अंगुल होती है। इन रत्नों का मान तत् तत् चक्रवर्ती की अपनी-अपनी
प्रमाण है।
इनमें चक्र, छत, दंड और असि की उत्पत्ति चक्रवर्ती की आयुधशाला में तथा चर्म, मणि और कागणि की उत्पत्ति चक्रवर्ती के श्रीघर में होती है।
सेनापति, गृहपति, वर्द्धक और पुरोहित -- ये चार पुरुषरत्न हैं। इनकी उत्पत्ति चक्रवर्ती की राजधानी विनीता में
होती है ।
अश्व और हस्ती - ये दो पञ्चेन्द्रिय रत्न हैं । इनकी उत्पत्ति वैताढधगिरि की उपत्यका में होती है ।
स्त्री रत्न की उत्पत्ति उत्तरदिशा की विद्याधर श्रेणी में होती है। "
प्रवचनसारोद्धार में इन चौदह रत्नों की व्याख्या इस प्रकार हैं
१. सेनापति – यह दलनायक होता है तथा गंगा और सिन्धु नदी के पार वाले देशों को जीतने में बलिष्ठ होता है । २. गृहपति - चक्रवर्ती के गृह की समुचित व्यवस्था में तत्पर रहने वाला । इसका काम है शाली आदि सभी धान्यों सभी प्रकार के फलों और सभी प्रकार की शाक-सब्जियों का निष्पादन करना ।
१. आवश्यकचूर्णि, पृष्ठ १३१ : अन्नेसि परिभासा मंडलबंधो य उसभसा मिणा उप्पावितो, चारगच्छविच्छेदो माणवर्गाणि धीतो ।
२. आवश्यक निर्युक्ति, अवचूर्णि पृष्ठ १७६ में उद्धृत :- हारिभद्रीयवृत्तौ तु चतुर्विधापि भरतेनैव प्रवत्तितेति ।
३. आवश्यकभाष्य गाथा १८, १९, आवश्यक निर्युक्ति अवचूर्णि
पृ० १६३, १६४ ।
४. स्थानांमवृत्ति, पत्र ३७६ : रत्नं निगद्यते तत् जाती जाती यदुत्कृष्ट मितिवचनात् चक्रादिजातिषु यानि वीर्यंत उत्कृष्टानि तानि चक्ररत्नादीनि मन्तव्यानि तत्र चक्रादीनि सप्त केन्द्रि याणि - पृथिवीपरिणामरूपाणि ।
५. प्रवचनसारोद्वार गाथा १२१६, १२१७:
Jain Education International
चक्कं छत्तं दंडं तिन्निवि एयाई वाममित्ताई । चम्मं दुहत्यदीहं बत्तीसं अंगुलाई असी || चउरंगुली मणी पुण तस्सद्धं चेव होई विच्छिन्नो । चउरंगुलप्पमाणा सुवन्नवरकागिणी नेया ॥
६. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति पत्र ३५१ : चक्रं छतं दंडमित्येतानि तीण्यपि रत्नानि व्यामप्रमाणानि । व्यामो नाम प्रसारितोभयबाहोः पुंसस्तियं गृहस्तद्वयांगुलयोरंत रालम् ।
७. आवश्यकचूणि, पृष्ठ २०७: भरहस्स णं रन्नो चक्करयणे छत्तरयणे दंडरयणे असिरयणे एते णं चत्तारि एगिदियरयणा आयुधसालाए सप्पन्ना, चम्मरयणे मणिरयणे कागणिरयणे णव य महाणिहओ एते णं सिरिघरंसि समुप्पण्णा, सेणावतिरयणे गाहावतिरयणे बडतिरयणे पुरोहितरयणे एते णं चत्तारि मणुरयणा विणीता रायहाणीए समुप्पन्ना, आसरयणे हत्थिरयणेएते णं दुवे पंचेंदियरयणा वेयडुगिरिपादमूले समुप्पण्णा, इत्थिरयणे उत्तरिल्लाए बिज्जाहरसेढीए समुप्पन्ने । ८. प्रवचनसारोद्धार वृत्ति, पत्र ३५०, ३५१ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org