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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७:टि०३७
४. हाथी
३. पुरोहित-ग्रहों की शांति के लिए उपक्रम करने वाला। ५. घोड़ा
। अत्यन्त वेग और महान् पराक्रम से युक्त । ६. वर्धकी--गृह, निवेश आदि के निर्माण का कार्य करने वाला। यह तमिस्रगुहा में उन्मग्नजला और निमग्नजलाइन दो नदियों को पार करने के लिए सेतु का निर्माण करता है। चक्रवर्ती की सेना इन्हीं सेतुओं से नदी पार करती है।
७. स्त्री-अत्यन्त अद्भुत काम-जन्य सुख को देने वाली होती है। ८. चक्र--सभी आयुधों में श्रेष्ठ तथा दुर्दम शत्रु पर विजय पाने में समर्थ ।
६. छत्र ---यह चक्रवर्ती के हाथ का स्पर्श पाकर बारह योजन लम्बा-चौड़ा हो जाता है। यह विशिष्ट प्रकार से निर्मित, विविध धातुओं से समलंकृत, विविध चिह्नों से मंडित तथा धूप, हवा, वर्षा से बचाने में समर्थ होता है।
१०. चर्म-बारह योजन लम्बे चौड़े छत्र के नीचे प्रातःकाल में बोए गए शाली आदि बीजों को मध्याह्न में उपभोग योग्य बनाने में समर्थ ।
११. मणि-यह वैडूर्यमय, तीन कोने और छह अंश वाला होता है । यह छत्र और चर्म-इन दो रत्नों के बीच स्थित होता है। यह बारह योजन में विस्तृत चक्रवर्ती की सेना में सर्वत्र प्रकाश बिखेरता है। जब चक्रवर्ती तमिस्रगुहा और खंडप्रपात गुहा में प्रवेश करता है तब उसके हस्तिरत्न के शिर के दाहिनी ओर इस मणि को बाँध दिया जाता है। तब बारह योजन तक तीनों दिशाओं में दोनों पावों में तथा आगे इसका प्रकाश फैलता है। इसको हाथ या सिर पर बाँधने से देव, तिर्यञ्च "और मनुष्य द्वारा कृत सभी प्रकार के उपद्रव तथा रोग नष्ट हो जाते हैं। इसको सिर पर या शरीर के किसी अंग-उपांग पर धारण कर संग्राम में जाने से किसी भी शस्त्र-अस्त्र से वह व्यक्ति अवध्य और सभी प्रकार के भयों से मुक्त होता है। इस मणिरत्न को अपनी कलाई पर बाँध कर रखने वाले व्यक्ति का यौवन स्थिर रहता है तथा उसके केश और नख भी बढ़ते-घटते नहीं।
१२. काकिणी-यह आठ सौवणिक प्रमाण का होता है। यह चारों ओर से सम तथा विष को नष्ट करने में समर्थ होता है । जहाँ चाँद, सूरज, अग्नि आदि अंधकार को नष्ट करने में समर्थ नहीं होते, वैसी तमिस्रगुहा में यह काकिणी रत्न अन्धकार को समूल नष्ट कर देता है। इसकी किरणें बारह योजन तक फैलती हैं। यह सदा चक्रवर्ती के स्कंधावार में स्थापित रहता है। इसका प्रकाश रात को भी दिन बना देता है। इसके प्रभाव से चक्रवर्ती द्वितीय अर्धभरत को जीतने के लिए सारी सेना के साथ तमिस्रगुहा में प्रवेश करता है।
१३. खड्ग (असि)-संग्राम भूमि में इसकी शक्ति अप्रतिहत होती है। इसका वार खाली नहीं जाता।
१४. दंड-यह वज्रमय होता है। इसकी पांचों लताएँ रत्नमय होती हैं और यह सभी शत्रुओं की सेनाओं को नष्ट करने में समर्थ होता है। यह चक्रवर्ती के स्कंधावार में जहाँ कहीं विषमता होती है, उसे सम करता है और सर्वत्र शांति स्थापित करता है। यह चक्रवर्ती के सभी मनोरथों को पूरा करता है तथा उसके हितों को साधता है। यह दिव्य और अप्रतिहत होता है। विशेष प्रयत्न से इसका प्रहार करने पर यह हजार योजन तक नीचे जा सकता है।
३७ आयुष्य-भेद (सू० ७२)
षट्प्राभृत में आयुःक्षय के कई कारण माने हैं
१. षट्प्रामृत, भावप्राभृत गाथा २५, २६ :
बिसवेयणरत्तक्खयभयसत्थग्गहणसंकिलेसाणं । आहारुस्सासाणं णिरोहणा खिज्जए आऊ।। हिमजलणसलिलगुरुयरपव्वयतरुषहणपहणभंगेहिं । रसविज्जजोयधारणअणयषसंगेहि विविहेहिं ।।
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