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ठाणं (स्थान)
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स्थान ७ : टि० ३३-३४
२. उत्कुट कासन-दोनों पैरों को भूमि पर टिकाकर दोनों पुतों को भूमि से न छुहाते हुए जमीन पर बैठना। इसका प्रभाव वीर्यग्रन्थियों पर पड़ता है और यह ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत फलदायी है।
३. प्रतिमास्थायी--भिक्ष-प्रतिमाओं की विविध मुद्राओं में स्थित रहना। देखें-दशाश्रुतस्कन्ध, दशा सात ।
४. वीरासनिक-बद्धपद्मासन की भांति दोनों पैरों को रख, हाथों को पद्मासन की तरह रखकर बैठना। आचार्य अभयदेवसूरी ने सिंहासन पर बैठकर उसे निकाल देने पर जो मुद्रा होती है, उसे वीरासन माना है। इससे धैर्य, सन्तुलन और कष्टसहिष्णुता का विकास होता है। ५. नैषद्यिक - इसका अर्थ है बैठकर किए जाने वाले आसन । स्थानांग ५०५० में निषद्या के पांच प्रकार बतलाए हैं
१. उत्कुटुका-[पूर्ववत्] २. गोदोहिका-घुटनों को ऊंचा रखकर पंजों के बल पर बैठना तथा दोनों हाथों को दोनों साथलों पर टिकाना। ३. समपादपूता-दोनों पैरों और पुतों को समरेखा में भूमि से सटाकर बैठना। ४. पर्यङ्का--जिनप्रतिमा की भांति पद्मासन में बैठना। ५. अर्द्धपर्यङ्का-एक पैर को ऊरु पर टिकाकर बैठना।
६. दण्डायतिक-दण्ड की तरह सीधे लेटकर दोनों पैरों को परस्पर सटाकर दोनों हाथों को दोनों पैरों से सटाना । इससे दैहिक प्रवृत्ति और स्नायविक तनाव का विसर्जन होता है।
७. लगंडशायी-भूमि पर सीधे लेटकर लकुट की भांति एडियों और सिर को भूमि से सटाकर शरीर को ऊपर उठाना । इससे कटि के स्नायुओं की शुद्धि और उदर-दोषों का शमन होता है।
विशेष विवरण के लिए देखें-उत्तरज्झयणाणि-भाग २, पृष्ठ २७१-२७४ ।
३३. कुलकर (सू० ६२)
सुदुर अतीत में भगवान ऋषभ के पहले यौगलिक व्यवस्था चल रही थी। उसमें न कुल था, न वर्ग और न जाति । उस समय एक युगल ही सब कुछ होता था। काल के परिवर्तन के साथ यह व्यवस्था टूटने लगी तब 'कुल' व्यवस्था का विकास हुआ। इस व्यवस्था में लोग 'कुल' के रूप में संगठित होकर रहने लगे। प्रत्येक कुल का एक मुखिया होता उसे 'कलकर' कहा जाता। वह कूल का सर्वेसर्वा होता और उसे व्यवस्था बनाए रखने के लिए अपराधी को दण्ड देने का अधिकार भी होता था। उस समय मुख्य कुलकर सात हुए थे, जिनके नाम प्रस्तुत सूत्र में दिए गए हैं। इनका विस्तार से वर्णन आवश्यकनियुक्ति गाथा १५२-१६६ में हुआ है।
देखें-स्थानांग १०।१४३, १४४ का टिप्पण।
३४. दंडनीति (सू०६६) :
प्रथम तीन दंडनीतियाँ कुलकरों के समय में प्रवर्तमान थीं। पहले और दूसरे कुलकर के समय में 'हाकार', तीसरे और चौथे कुलकर के समय में छोटे अपराध में हाकार और बड़े अपराध में 'माकार' दंडनीति प्रचलित थी। पाँचवें, छठे और सातवें कुलकरों के समय में छोटे अपराध के लिए हाकार, मध्यम अपराध के लिए माकार और बड़े अपराध के लिए धिक्कार दंडनीति प्रचलित थी। शेष चार चक्रवर्ती भरत के समय में प्रवर्तित हुई। एक अभिमत यह भी है कि अन्तिम चारों
१. स्थानांगवृत्ति, पब ३७८ :
वीरास निको---यः सिंहासननिविष्टमिवास्ते । २. आवश्यकनियुक्ति, गाथा १६७, १६ :
हक्कारे मक्कारे धिक्कारे चेव दंडनीईओ। वच्छ तासि विसेसं जहक्कम आणपुचए । पढ़मबीयाण पढमा तइयचउत्थाण अभिनवा बीया। पंचमछट्टरस य, सत्तमस्स तइया अभिनवा उ ।।
३. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा १६६ :
सेसा उ दंडनीई, माणकानिहीओ होति भरहस्स । आवश्यकनियुक्तिभाष्य, गाथा ३ (आवश्यकनियुक्ति अवचूणि पृष्ठ १७५ पर उद्धृत) परिभाषणा उ पढमा, मंडलबंधमि होइ बीया उ । चारग छविच्छेआई, भरहस्स च उबिहानीई ।।
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