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ठाणं (स्थान)
स्थान ७ : टि० २६-३२ २६. तन्त्रीसम (सू० ४८)
अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर अक्षरसम है। जहाँ दीर्घ, ह्रस्व, प्लुत और सानुनासिक अक्षर के स्थान पर उसके जैसा ही स्वर गाया जाए, उसे अक्षरसम कहा जाता है। २७. तालसम (सू०४८)
दाहिने हाथ से ताली बजाना 'काम्या' है। बाएं हाथ से ताली बजाना 'ताल' और दोनों हाथों से ताली बजाना संनिपात' है। २८. पादसम (सू० ४८)
अनुयोगद्वार में इसके स्थान पर 'पदसम' है।
२६. लयसम (सू० ४८)
तालक्रिया के अनन्तर [अगली तालक्रिया से पूर्व तक किया जाने वाला विश्राम लय कहलाता है।
३०. ग्रहसम (सू० ४८)
इसे समग्रह भी कहा जाता है। ताल में सम, अतीत और अनागत-ये तीन ग्रह हैं। गीत, वाद्य और नृत्य के साथ होने वाला ताल का आरम्भ अवपाणि या समग्रह, गीत आदि के पश्चात् होने वाला ताल आरम्भ अवपाणि या अतीतग्रह तथा गीत आदि से पूर्व होने वाला ताल का प्रारम्भ उपरिपाणि या अनागतग्रह कहलाता है। सम, अतीत और अनागत ग्रहों में क्रमशः मध्य, द्रुत और विलंबित लय होता है।
३१. तानों (सू० ४८) - इसका अर्थ है-स्वर-विस्तार, एक प्रकार की भाषाजनक राग। ग्राम रागों के आलाप-प्रकार भाषा कहलाते
३२. कायक्लेश (सू० ४६)
कायक्लेश बाह्य तप का पांचवां प्रकार है। इसका अर्थ जिस किसी प्रकार से शरीर को कष्ट देना नहीं है, किन्तु आसन तथा देह-मूर्छा विसर्जन को कुछ प्रक्रियाओं से शरीर को जो कष्ट होता है, उसका नाम कायक्लेश है। प्रस्तुत सूत्र में इसके सात प्रकार निर्दिष्ट हैं। ये सब आसन से सम्बन्धित हैं। उत्तराध्ययन में भी कायक्लेश की परिभाषा आसन के सन्दर्भ में की गई है । औपपातिक सूत्र में आसनों के अतिरिक्त सूर्य की आतापना, सर्दी में वस्त्रविहीन रहना, शरीर को न खुजलाना, न थूकना तथा शरीर का परिकर्म और विभूषा न करना----ये भी कायक्लेश के प्रकार बतलाए गए हैं।
१. स्थानायतिक-कायोत्सर्ग में स्थिर होना। देखें-उत्तरज्झयणाणि भाग २, पृष्ठ २७१-२७४ ।
१. अनुयोगद्वार ३०७।८ वृत्ति पन्न १२२ : यत्र दीर्घ अक्षरे दीर्घा
गीतस्वरः क्रियते ह्रस्बे ह्रस्वः प्लुते प्लुत: सानुनासिके तु सानु -
नासिक: तदक्षरसमम् । २. भरत का संगीत सिद्धान्त, पृष्ठ २३५ । ३. अनुयोगद्वार ३०७८ । ४. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २४२ । ५. संगीतरत्नाकर, ताल, पृष्ठ २६ । ६. भरत का संगीतसिद्धान्त, पृष्ठ २२६ ।
७. उत्तराध्ययन ३०१२६:
ठाणा वीरासणाईया, जीवस्स उसुहावहा ।
उग्गा जहा धरिजंति, कायकिलेसं तमाहियं । ८. ओपपातिक, सूत्र ३६ : से कि तं कायकिलेसे ? कायकिलेसे
अणेगविहे पण्णते, तंजहा-ठाणट्टिइए उक्कुडुयासगिए पडिमट्ठाई वीरासणिए नेसज्जिए आयावए अवाउदए अकंडयए अणिठ्ठहए सव्वगाय-परिकम्म-विभूस-विप्पमुक्के ।
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