SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 804
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) स्थान ७ : टि० २३-२५ नारदीशिक्षा के अनुसार इन दस गुणों की व्याख्या इस प्रकार है१. रक्त—जिसमें वेणु तथा वीणा के स्वरों का गानस्वर के साथ सम्पूर्ण सामंजस्य हो। २. पूर्ण-जो स्वर और श्रुति से पूरित हो तथा छन्द, पाद और अक्षरों के संयोग से सहित हो। ३. अलंकृत—जिसमें उर, सिर और कण्ठ–तीनों का उचित प्रयोग हो। ४. प्रसन्न-जिसमें गद्गद् आदि कण्ठ दोष न हो तथा जो निःशंकतायुक्त हो। ५. व्यक्त—जिसमें गीत के पदों का स्पष्ट उच्चारण हो, जिससे कि श्रोता स्वर, लिंग, वृत्ति, वार्तिक, वचन, विभक्ति आदि अंगों को स्पष्ट समझ सके। ६. विकृष्ट जिसमें पद उच्चस्वर से गाए जाते हों। ७. श्लक्ष्ण-जिसमें ताल की लय आद्योपान्त समान हो। ८. सम-जिसमें लय की समरसता विद्यमान हो। ६. सुकुमार-जिसमें स्वरों का उच्चारण मृदु हो। १०. मधुर-जिसमें सहजकण्ठ से ललित पद, वर्ण और स्वर का उच्चारण हो । प्रस्तुत सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख है। उपर्युक्त दस गुणों में से सात गुणों के नाम प्रस्तुत सूत्रगत नामों के समान हैं। अविघुष्ट नामक गुण का नारदीशिक्षा में उल्लेख नहीं है। अभयदेवकृत वृत्ति की व्याख्या का उल्लेख हम अनुवाद में दे चके हैं। यह अन्वेषणीय है कि वृत्तिकार ने ये व्याख्याएं कहाँ से ली थीं। २३. सम (सू० ४८) जहाँ स्वर-ध्वनि को गुरु अथवा लघु न कर आद्योपान्त एक ही ध्वनि में उच्चारित किया जाता है, वह 'सम' कहलाता है। २४. पदबद्ध (सू० ४८) इसे निबद्धपद भी कहा जाता है। पद दो प्रकार का है—निबद्ध और अनिबद्ध । अक्षरों की नियत संख्या, छन्द तथा यति के नियमों से नियन्त्रित पदसमूह 'निबद्ध-पद' कहलाता है। २५. छन्द (सू० ४८) तीन प्रकार के छन्द की दूसरी व्याख्या इस प्रकार है• सम—जिसमें चारों चरणों के अक्षर समान हों। • अर्द्धसम-जिसमें पहले और तीसरे तथा दूसरे और चौथे चरण के अक्षर समान हों। • सर्व विषम-जिसमें सभी चरणों के अक्षर विषम हों। १. नारदीशिक्षा १।३।१-११। २. भरत का नाट्यशास्त्र २६४७: सर्वसाम्यात् समो ज्ञेयः, स्थिरस्त्वेकस्वरोऽपि यः ।। ३. भरत का नाट्यशास्त्र ३२२३६ । नियताक्षरसंबंध, छन्दोयतिसमन्वितम् । निबद्धं तु पदं ज्ञेयं, नानाछन्दःसमुद्भवम् ॥ ४. स्थानांगवृत्ति, पन ३७६ : अन्ये तु व्याचक्षते समं यन्त्र चतुष्वपि पादेषु समान्यक्षराणि, अर्द्धसमं यत्र प्रथमतृतीययोद्वितीयचतुर्थयोश्च समत्व, तथा सर्वत्र सर्वपादेषु विषमं च विषमाक्षरम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org,
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy