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ठाणं (स्थान)
७६२
स्थान ७ : टि० २०-२२
उत्तरमंद्रा रजनी उत्तरा उत्तरायता अश्वक्रान्ता सौवीरा अभिरुद्गता
सौवीरी हरिणाश्वा कलोपनता शुद्धमध्या
मध्यमग्राम की मूर्छनाएं
पंचमा मत्सरी मृदुमध्यमा शुद्धा अन्द्रा कलावती
| नंदी विशाला सुमुखी चिना चित्रवती सुखा
मार्गी पौरवी
| कृष्यका
तीव्रा
बला
नंदी
क्षुद्रिका पूरका शुद्धगांधारा उत्तरगांधारा सुष्ठतरआयामा उत्तरायता कोटिमा
गान्धारग्राम की मूर्च्छनाएं
सौद्री
ब्राह्मी गान्धार ग्राम का
वैष्णवी अस्तित्व नहीं
खेदरी माना है।
नादावती विशाला
आप्यायनी विश्वचूला चन्द्रा हैमा कपदिनी मैत्री बाहती
प्रस्तुत चार्ट से मूर्च्छनाओं के नामों में कितना भेद है, यह स्पष्ट हो जाता है।
नारदीशिक्षा में जो २१ मूर्च्छनाएं बताई गई हैं उनमें सात का सम्बन्ध देवताओं से, सात का पितरों से और सात का ऋषियों से है। शिक्षाकार के अनुसार मध्यमग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग यक्षों द्वारा, षड्जग्रामीय मूर्च्छनाओं का ऋषियों तथा लौकिक गायकों द्वारा तथा गान्धारग्रामीय मूर्च्छनाओं का प्रयोग गन्धर्वो द्वारा होता है।
इस आधार पर मूर्च्छनाओं के तीन प्रकार होते हैं-देवमूर्च्छनाएं, पितृमूर्च्छनाएं और ऋषिमूर्च्छनाएं। २०. गीत (सू० ४८)
दशांशलक्षणों से लक्षित स्वरसग्निवेश, पद, ताल एवं मार्ग-इन चार अंगों से युक्त गान 'गीत' कहलाता है। २१, २२. गीत के छह दोष, गीत के आठ गुण (सूत्र ४८)
नारदीशिक्षा में गीत के दोषों और गुणों का सुन्दर विवेचन प्राप्त होता है। उसके अनुसार दोष चौदह और गुण दस हैं। वे इस प्रकार हैंचौदह दोष'
शंकित, भीत, उद्धृष्ट, अव्यक्त, अनुनासिक, काकस्वर, शिरोगत, स्थानवर्जित, विस्वर, विरस, विश्लिष्ट, विषमाहत, व्याकुल तथा तालहीन। प्रस्तुत सूत्रगत छह दोषों का समावेश इनमें हो जाता हैभीत-भीत
ताल-वजित-तालहीन द्रुत--विषमाहत
काकस्वर-काकस्वर ह्रस्व-अव्यक्त
अनुनास-अनुनासिक दस गुणरक्त, पूर्ण, अलंकृत, प्रसन्न, व्यक्त, विकृष्ट, श्लक्ष्ण, सम, सुकुमार और मधुर ।
१. नारदीशिक्षा १।२।१३, १४ ।। २. संगीतरत्नाकर, कल्लीनायकृत टीका, पृष्ठ ३३ ।
३. नारदीशिक्षा १।३।१२,१३ । ४. वही, १।३।१
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