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________________ ठाणं (स्थान) ७६१ स्थान ७ : टि० १७-१६ परन्तु अन्य आचार्यों ने लौकिक विनोद के लिए ग्रामजन्य रागों का प्रयोग निषिद्ध बतलाया है।' नारद की सम्मति के अनुसार गान्धारग्राम का प्रयोग स्वर्ग में ही होता है।' इसमें षड्ज स्वर विश्रुति, ऋषभ द्विश्रुति, गान्धार चतुःश्रुति, मध्यम - पञ्चम और धैवत त्रि विश्रुति और निषाद चतुःश्रुति होता है । गान्धार ग्राम का वर्णन केवल संगीतरत्नाकर या उसके आधार पर लिखे गए ग्रन्थों में है। इस ग्राम के स्वर बहुत टेढ़े-मेढ़े हैं अतः गाने में बहुत कठिनाइयां आती हैं। इसी दुख्हता के कारण 'इसका प्रयोग स्वर्ग में होता है - ऐसा कह दिया गया है। वृत्तिकार के अनुसार 'मंगी' आदि इक्कीस प्रकार की मूर्च्छनाओं के स्वरों की विशद व्याख्या पूर्वगत के स्वर-प्राभृत में । वह अब लुप्त हो चुका है। इस समय इनकी जानकारी उसके आधार पर निर्मित भरतनाट्य, वैशाखिल आदि ग्रन्थों से जाननी चाहिए। १७-१६. मूर्च्छना (सू० ४५-४७ ) इसका अर्थ है - सात स्वरों का क्रमपूर्वक आरोह और अवरोह । महर्षि भरत ने इसका अर्थ सात स्वरों का क्रम - पूर्वक प्रयोग किया है। मूर्च्छना समस्त रागों की जन्मभूमि है। यह चार प्रकार की होती है १. पूर्णा २. षाडवा ३. ओडुविता ४. साधारणा । " अथवा - १. शुद्धा २. अंतरसंहिता ३. काकलीसंहिता ४. अन्तरकाकलीसंहिता । " तीन सूत्रों [ ४५,४६, ४७ ] में षड्ज आदि तीन ग्रामों की सात-सात मूर्च्छनाएं उल्लिखित हैं। भरतनाट्य, संगीतदामोदर, नारदीशिक्षा' आदि ग्रंथों में भी मूर्च्छनाओं का उल्लेख है । वे भिन्न-भिन्न प्रकार से हैं। भरतनाट्य में गांधार ग्राम को मान्यता नहीं दी गई है। मूल सूत्र मंगी कौरवीया हरित् रजनी सारकान्ता सारसी शुद्धषड्जा भरतनाट्य Jain Education International उत्तरमंद्रा रजनी उत्तरायता शुद्ध षड्जा मत्सरीकृता अश्वकान्ता अभिरुद्गता १. प्रो० रामकृष्ण कवि, भरतकोश, पृष्ठ २४२ । २. वही, पृष्ठ ५४२ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३७५ : ४. संगीतरत्नाकर, स्वर प्रकरण, पृष्ठ १०३, १०४ । ५. वही, पृष्ठ ११४ । ६. भरत अध्याय २८, पृष्ठ ४३५ । इह च मङ्गीप्रभृतीनामेकविंशतिमूर्च्छनानां स्वरविशेषाः 'पूर्वगते स्वरप्राभृते भणिताः अधुना तु तद्विनिर्गतेभ्यो भरतवंशा खिलादिशास्त्रेभ्यो विज्ञेया इति' । संगीतदामोदर षड्जग्राम की मूर्च्छनाएं ललिता मध्यमा चित्रा रोहिणी मतंगजा सौवीरी षण्मध्या नारदीशिक्षा For Private & Personal Use Only उत्तरमंद्रा अभिरुद्गता अश्वक्रान्ता सौवीरा हृष्यका उत्तरायता रजनी ७. भरतनाट्य २८।२७-३० : आद्या त्तरमन्द्रा स्याद्, रजनी चोत्तरायता । चतुर्थी शुद्धषड्जा तु पंचमी मत्सरीकृता ।। अश्वक्रान्ता तु षष्ठी स्यात्, सप्तमी चाभिरुद्गता । षड्जग्रामाश्रिता एता, विज्ञेयाः सप्त मूच्र्छनाः । सौवीरी हरिणाश्वा च स्यात् कलोपनता तथा ॥ चतुर्थी शुद्धमध्यमा तु, मागंबी पौरवी तथा ।। हृष्यका चैव विज्ञेया, सप्तमी द्विजसत्तमाः । मध्यमग्रामजा ह्यता, विज्ञेयाः सप्त मूच्र्छनाः ॥ ८. नारदीशिक्षा १२/१३, १४ । www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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