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________________ ___७६० ठाणं (स्थान) स्थान ७ : टि० १३-१६ १३. गवेलक (सू० ४१) वृत्तिकार ने गवेलक को दो शब्द-गव+ एलक मानकर इससे गाय और भेड़-दोनों का ग्रहण किया है और विकल्प में इसे केवल भेड़ का पर्यायवाची माना है।' १४. पंचम स्वर (सू० ४१) प्रस्तुत सूत्र में प्रयुक्त 'अथ' शब्द का विशेष अर्थ है। गवेलक सदा मध्यम स्वर में बोलते हैं, वैसे ही कोयल सदा पञ्चम स्वर में नहीं बोलता। वह केवल वसन्त ऋतु में ही पञ्चम स्वर में बोलता है।' १५. नरसिंघा (सू० ४२) एक प्रकार का बड़ा बाजा जो तुरही के समान होता है। यह फंक से बजाया जाता है। जिस स्थान से फूंका जाता है वह संकडा और आगे का भाग क्रमशः चौड़ा होता चला जाता है। १६. ग्राम (सू० ४४) यह शब्द समूहवाची है। संवादी स्वरों का वह समूह ग्राम है जिसमें श्रतियां व्यवस्थित रूप में विद्यमान हों और जो मूर्च्छना, तान, वर्ण, क्रम, अलंकार इत्यादि का आश्रय हो।' ग्राम तीन हैं षड्ज ग्राम, मध्यमग्राम और गान्धारग्राम। षड्जग्राम—इसमें षड्ज स्वर चतुःश्रुति, ऋषभ विश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम चतुःश्रुति, धैवत विश्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। इसमें 'षड्ज-पञ्चम', 'ऋषभ-धैवत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम'ये परस्पर संवादी हैं। जिन दो स्वरों में नौ अथवा तेरह श्रुतियों का अन्तर हो, वे परस्पर संवादी हैं। शाङ्गदेव कहते हैं-षड्जग्राम नामक राग षड्ज मध्यमा जाति से उत्पन्न सम्पूर्ण राग है। इसका ग्रह एवं अंशस्वर तार षड्ज है, न्यासस्वर मध्यम है, अपन्यासस्वर षड्ज है, अबरोही और प्रसन्नान्त अलंकार इसमें प्रयोज्य हैं। इसकी मूर्च्छना षड्जादि | उत्तरमन्द्रा] है। इसमें काकली-निषाद एवं अन्तर-गान्धार का प्रयोग होता है; वीर, रौद्र, अद्भुत रसों में नाटक की सन्धि में इसका विनियोग है। इस राग का देवता बृहस्पति है और वर्षाऋतु में, दिन के प्रथम प्रहर में, यह गेय है। यह शुद्ध राग है। मध्यमग्राम—इसमें 'ऋषभ-पञ्चम', 'ऋषभ-वत', 'गान्धार-निषाद' और 'षड्ज-मध्यम' परस्पर संवादी हैं। शाङ्गदेव का विधान है कि मध्यमग्राम राग का विनियोग हास्य एवं शृंगार में है। यह राग गान्धारी, मध्यमा और पञ्चमी जातियों से मिलकर उत्पन्न हुआ है। काकली-निषाद का प्रयोग इसमें विहित है। इस राग का अंश-ग्रह-स्वर मन्द्र षड्ज, न्याय-स्वर मध्यम और मूर्च्छना 'सौवीरी' है। प्रसन्नादि और अवरोही के द्वारा मुखसन्धि में इसका विनियोग है। यह राग ग्रीष्म ऋतु के प्रथम प्रहर में गाया जाता है। महर्षि भरत ने सात शुद्ध रागों में इसे गिना है। इसमें षड्जस्वर चतुःश्रुति, ऋषभ विश्रुति, गान्धार द्विश्रुति, मध्यम चतुःश्रुति, पञ्चम विश्रुति, धंवत चतु:श्रुति और निषाद द्विश्रुति होता है। गान्धार ग्राम-महर्षि भरत ने इसकी कोई चर्चा नहीं की है। उन्होंने केवल दो ग्रामों को ही माना है। कुछ आचार्यों ने गान्धार ग्राम और तज्जन्य रागों का वर्णन करके लौकिक विनोद के लिए भी उनके प्रयोग का विधान किया है।' १. स्थानांगवत्ति, पत्न ३७४ : गवेलग त्ति गावश्च एलकाश्च ऊरणका गवेलकाः अथवा गवेलका-ऊरणका एव इति । २. स्यानांगवृत्ति, पत्र ३७५ : अथे ति विशेषार्थः, विशेषार्थता चैवं—यथा गवेलका अविशेषेण मध्यम स्वरं नदन्ति न तथा कोकिला: पञ्चमं, अपि तु कुसुमसम्भवे काल इति । ३. मतङ्गः भरतकोश, पृष्ठ १८६ । ४. भरत : (बम्बई संस्करण) अध्याय २८ पृष्ठ ४३४ । ५. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ २६-२७ । ६. संगीतरत्नाकर (अड्यार संस्करण) राग, पृष्ठ ५६ । ७. प्रो. रामकृष्णकवि, भरतकोश, पृष्ठ ५४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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