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________________ ari (स्थान) ७५६ स्थान ७ : टि० ११ १२ (७) निषाद - इसमें सब स्वर निषण्ण होते हैं- इससे सब अभिभूत होते हैं, इसलिए इसे निषाद कहा जाता है । ' बौद्ध परम्परा में सात स्वरों के नाम ये हैं सहय, ऋषभ, गान्धार, धैवत, निषाद, मध्यम तथा कैशिक । कई विद्वान् सहर्घ्यं को षड्ज के पर्याय स्वरूप तथा कैशिक को पंचम स्थान पर मानते हैं। ११. स्वर स्थान ( सू० ४० ) स्वर के उपकारी — विशेषता प्रदान करने वाले स्थान को स्वर स्थान कहा जाता है। षड्जस्वर का स्थान जिह्वाग्र है । यद्यपि उसकी उत्पत्ति में दूसरे स्थान भी व्यापृत होते हैं और जिह्वाग्र भी दूसरे स्वरों की उत्पत्ति में व्यापृत होता है, फिर भी जिस स्वर की उत्पत्ति में जिस स्थान का व्यापार प्रधान होता है, उसे उसी स्वर का स्थान कहा जाता है। प्रस्तुत सूत्र में सात स्वरों के सात स्वर स्थान बतलाए गए हैं। नारदी शिक्षा में ये स्वर स्थान कुछ भिन्न प्रकार से उल्लिखित हुए हैं - षड्ज कंठ से उत्पन्न होता है, ऋषभ सिर से, गांधार नासिका से मध्यम उर से, पंचम उर, सिर तथा कंठ से, धैवत ललाट से तथा निषाद शरीर की संधियों से उत्पन्न होता है। इन सात स्वरों के नामों की सार्थकता बताते हुए नारदी शिक्षा में कहा गया है कि- 'षड्ज' संज्ञा की सार्थकता इसमें है कि वह नासा, कण्ठ, उर, तालु, जिह्वा तथा दन्त इन छह स्थानों से उद्भूत होता है । 'ऋषभ' की सार्थकता इसमें है कि वह ऋषभ अर्थात् बैल के समान नाद करने वाला है। 'गांधार' नासिका के लिए गन्धावह होने के कारण अन्वर्थक बताया गया हैं । 'मध्यम' की अन्वर्थकता इसमें है कि वह उरस् जैसे मध्यवर्ती स्थान में आहत होता है । 'पंचम' संज्ञा इसलिए सार्थक है कि इसका उच्चारण नाभि, उर, हृदय, कण्ठ तथा सिर- इन पांच स्थानों में सम्मिलित रूप से होता है।" १२. (सू०४१ ) नारदीशिक्षा में प्राणियों की ध्वनि के साथ सप्त स्वरों का उल्लेख नितान्त भिन्न प्रकार से मिलता है— षड्ज स्वर -- मयूर | ऋषभ स्वर -- गाय | गांधार स्वर - बकरी । मध्यम स्वर- क्रौंच । पंचम स्वर- कोयल । धैवत स्वर - अश्व । निषाद स्वर - कुंजर । १. स्थानांगवृत्ति पत्र ३७४ ॥ २. लंकावतार सूत्र - अथ रावणो सहष्यं ऋषभ - गान्धारवित-निषाद-मध्यम- कैशिक गीतस्वरग्राममूर्च्छनादियुक्तेन ....... गाथाभिर्गीत रनु गायतिस्म । ३. जरनल ऑफ म्यूजिक एकेडमी, मद्रास, सन् १९४५, खंड १६, पृष्ठ ३७ । ४. नारदीशिक्षा ११५४६,७ : Jain Education International कण्ठादुत्तिष्ठते षड्जः शिरसस्त्वृषभः स्मृतः । गान्धारस्त्वनुनासिक्य उरसो मध्यमः स्वरः ।। उरसः शिरसः कण्ठादुत्थितः पंचमः स्वरः । ललाटार्द्धवतं विद्यान्निषादं सर्वसन्धिजम् ।। ५. भारतीय संगीत का इतिहास, पृष्ठ १२१ । नारदीशिक्षा १२५ ४, ५ : ६. षड्जं मयूरो वदति, गावो रंमन्ति चर्षभम् । अजावदति तु गान्धारं, क्रौंचो वदति मध्यमम् ।। पुष्पसाधारणे काले, पिको वक्ति च पंचमम् । अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं कुञ्जरः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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