SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) २६७ स्थान ३ : टि०२७-३५ २७-असुरकुमार के (सू० ५६) : असूरकूमार आदि भवनपति देवों में चार लेश्याएं होती हैं, पर संक्लिष्ट लेश्याएँ तीन ही होती हैं। चौथी लेश्यातेजोलेश्या संक्लिष्ट नहीं है, इस दृष्टि से यहां तीन लेश्याएं बतलाई गई हैं। २८-पृथ्वीकाय... (सू०६१) : पृथ्वीकाय, अप्काय तथा वनस्पतिकाय में जीव देवगति से आकर उत्पन्न हो सकते हैं, उन जीवों में तेजोलेश्या भी प्राप्त होती है, किन्तु यह संक्लिष्टलेश्या का निरूपण है, इसलिए उनमें तीन ही लेश्याएं निरूपित की गई हैं। २६ तेजस्कायिक... (सू० ६२) : प्रस्तुत सूत्र में उल्लिखित तेजस्कायिक आदि जीवों में तीन लेश्याएं ही प्राप्त होती हैं, अतः ५८वे सूत्र की भांति यहां भी संक्लिष्ट शब्द का प्रयोग अपेक्षित नहीं है। ३०-३२-सामानिक, तावत्रिशंक, लोकान्तिक (सू० ८०-८६) : सामानिक-समृद्धि में इन्द्र के समकक्षदेव । तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार आज्ञा और ऐश्वर्य के सिवाय, स्थान, आयु, शक्ति, परिवार और भोगोपभोग आदि में यह इन्द्र के समान होते हैं। ये पिता, गुरु, उपाध्याय आदि के समान आदरणीय होते हैं। तावतिशक-इन्द्र के मंत्री और पुरोहित स्थानीयदेव। लोकान्तिक-पांचवें देवलोक में रहने वाले देवों' की एक जाति । ३३-३४-शतपाक, सहस्रपाक (सू०८७) : शतपाक-वृत्तिकार ने इसके चार अर्थ किए हैं १. सौ औषधिववाथ के द्वारा पकाया हुआ। २. सौ औषधियों के साथ पकाया गया। ३. सौ बार पकाया गया। ४. सौ रुपयों के मूल्य से पकाया गया। सहस्रपाक-वृत्तिकार ने इसके भी चार अर्थ किए हैं १. सहस्र औषधिक्वाथ के द्वारा पकाया हुआ। २. सहस्र औषधियों के साथ पकाया गया। ३. सहस्र बार पकाया गया। ४. सहस्र रुपयों के मूल्य से पकाया गया। ३५-स्थालीपाक (सू०८७) : अट्ठारह प्रकार के स्थालीपाक शुद्ध व्यञ्जन-स्थाली का अर्थ है पकाने की हंडिया। शब्दकोष' में इसके पर्यायवाची शब्द हैं-उरवा, पिठर, कुंड, चरु, कुम्भी। ___अट्ठारह प्रकार के व्यञ्जन ये हैं१. स्थानांगबृत्ति, पन्न १०६ : असुरकुमाराणां तु चतसृणां भावात् २. अभिधानचिंतामणि, १०१६ । संक्लिष्टा इति विशेषितं, चतुर्थी हि तेषां तेजोलेश्याऽस्ति, ३. प्रवचनसारोद्धार, द्वार २५६, गाथा ११-१७। किन्तु सा न संक्लिष्टेति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy