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ठाणं (स्थान)
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स्थान ३ : टि० १६-२६
चरित्रपुरुष-चरित्रप्रधान पुरुष । वेदपुरुष-पुरुष संबंधी मनोविकार का अनुभव करने वाला। यह स्त्री, पुरुष और नपुंसक-इन तीनों लिङ्गों में
हो सकता है। चिन्हपुरुष-दाढ़ी आदि पुरुष-चिन्हों से पहचाने जाने वाला अथवा पुरुषवेषधारी स्त्री आदि । अभिलाषपुरुष-लिंगानुशासन के अनुसार पुरुषलिंग से अभिहित होने वाला शब्द ।
१६-२२-(सू० ३२-३५) :
इन चार सूत्रों में पुरुषों की तीन श्रेणियां निरूपित हैं। प्रथम श्रेणी में धर्म, भोग और कर्म-इन तीनों के उत्तम पुरुपों का निरूपण है । द्वितीय और तृतीय श्रेणी में ऐसा निरूपण प्राप्त नहीं होता। द्वितीय श्रेणी के तीन पुरुषों का सम्बन्ध आवश्यक नियुक्ति के आधार पर ऋषभकालीन व्यवस्था के साथ जोड़ा जाता है। ऋषभ की राज्य-व्यवस्था में आरक्षक, उग्र, पुरोहित, भोज और वयस्य राजन्य कहलाते थे।'
भगवान महावीर के समय में भी उग्र, भोग और राजन्यों का उल्लेख मिलता है। इससे यह अनुमान किया जाता है कि ये प्राचीन समय के प्रसिद्ध वंश हैं।
__ इस वर्गीकरण से यह पता चलता है कि आगम-रचनाकाल में दास, भूतक (कर्मकर) और भागिक-कुछ भाग लेकर खेती आदि का काम करने वाले लोग तीसरी श्रेणी में गिने जाते थे। इन प्राचीन मूल्यों में आज क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है। वर्तमान मूल्यों के अनुसार भोगपुरुष चक्रवर्ती को उत्तमपुरुष और खेतीहर मजदूर को जघन्यपुरुष का स्थान नहीं दिया जा सकता।
२३–समूच्छिम (सू० ३६) :
वृत्तिकार ने सम्मूच्छिम का अर्थ अगर्भज किया है। समूच्छिम जीव गर्भ से उत्पन्न नहीं होते। वे लोक के किसी भी भाग में उत्पन्न हो जाते हैं। वे जहाँ उत्पन्न होते हैं वहीं पुद्गलसमूह को आकृष्ट कर अपने देह की समन्ततः (चारों ओर से) मूर्च्छना (शारीरिक अवयवों की रचना) कर लेते हैं।' २४-२५-उरः परिसर्प, भुजपरिसर्प (सू० ४२-४५) :
परिसर्प का अर्थ होता है-चलने वाला प्राणी। वह दो प्रकार का होता है-- १. उरः परिसर्प-पेट के बल रेंगने वाला, जैसे-सर्प आदि । २. भजपरिसर्प-भजा के बल चलने वाला, जैसे-नेवला आदि।
२६-(सू० ५०):
१. कर्मभूमि-कृषि आदि कर्म द्वारा जीविका चलाई जाए, उस प्रकार की भूमि कर्मभूमि कहलाती है। २. अकर्मभूमि-प्राकृतिक साधनों से जीविका चलाई जाए, उस प्रकार की भूमि अकर्मभूमि कहलाती है। ३. अन्तर्वीप-ये लवण समुद्र के अन्तर्गत हैं। इनमें उत्पन्न होने वाले क्रमशः कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज कहलाते हैं।
१. आवश्यक नियुक्ति, १९८:
उग्गा भोगा राइण्ण-खत्तिया संगहा भवे चउहा ।
आरक्ख गुरुवयंसा, सेसा जे खत्तिया ते उ ।। २. उवासगदसाओ, ७१३७ । ३. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०८ : सम्मूर्छिमा अगर्भजा ।
४. तत्त्वार्थवातिक, २।३१ : त्रिषु लोकेपूर्वमधस्तिर्यक् च देहस्य
समन्ततो मूर्छन सम्मूर्छनम्-अवयवप्रकल्पनम्। ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०८ : उरसा-बक्षसा परिसप्पन्तीति
उर:परिसर्पा:-सर्पादयस्तेऽपि भणितव्याः, तथा भुजाभ्यांबाहुभ्यां परिसप्पन्ति येते तथा नकुलादयः ।
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