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________________ ठाणं (स्थान) २६५ स्थान ३ : टि० १२-१८ १२–दण्ड (सू० २४) : देखें १।३ का टिप्पण। १३-गर्दा (सू० २६) : देखें २।३८ का टिप्पण। १४–प्रत्याख्यान (सू० २७) : छब्बीसवें सूत्र में गर्दा का उल्लेख है और प्रस्तुत सूत्र में प्रत्याख्यान का। गर्दा अतीत के अनाचरण का अनुताप है और प्रत्याख्यान भविष्य में अनाचरण का प्रतिषेध । १५-(सू० २८) : प्रस्तुत सूत्र में पुरुप की वृक्ष से तुलना की गई है। इस तुलना का निमित्त उपकार की तरतमता है-यह वृत्तिकार ने निर्दिष्ट किया है । इस निर्देश को एक निदर्शन मात्र समझना चाहिए। तुलना के निमित्तों की संघटना अनेक दृष्टिकोणों से की जा सकती है। पत्रयुक्त वृक्ष की अपेक्षा पुष्पयुक्त वृक्ष की सुषमा अधिक होती है और फलयुक्त वृक्ष उससे भी अधिक महत्त्व रखता है। पत्र छाया (शोभा) का, पुष्प सुगंध का और फल सरसता का प्रतीक है। छायासम्पन्न पुरुष की अपेक्षा वह पुरुष अधिक महत्त्व रखता है जिसके जीवन में गुणों की सुगन्ध होती है और उस पुरुष का और अधिक महत्त्व होता है, जिसके जीवन से गुणों का रस-निर्झर प्रवाहित होता रहता है। किसी वृक्ष में पत्र, पुष्प और फल तीनों होते हैं। इस दुनियां में ऐसे पुरुष भी होते हैं, जिनके जीवन में गुणों की चमक, महक और सरसता–तीनों एक साथ मिलते हैं। संत तुलसीदास जी ने रामायण में तीन प्रकार के पुरुषों का वर्णन किया है। कुछ पुरुष पाटल वृक्ष के समान होते हैं। पाटल के केवल फूल होते हैं फल नहीं। पाटल के समान पुरुष केवल कहते हैं, पर करते कुछ नहीं। कुछ पुरुष आम्रवृक्ष के समान होते हैं। आम्र के फल और फूल दोनों होते हैं। आम्र के समान पुरुष कहते भी हैं और करते भी हैं। ___ कुछ पुरुष फनस वृक्ष के समान होते हैं। फनस के केवल फल होते हैं। फनस के समान पुरुष कहते नहीं किन्तु करते हैं। १६-१८-(सू० २६-३१) : निर्दिष्ट तीन सूत्रों में पुरुष का विभिन्न दृष्टिकोणों से निरूपण किया गया हैनामपुरुष-जिस सजीव या निर्जीव वस्तु का पुरुष नाम होता है, उसे नामपुरुष कहा जाता है। स्थापनापुरुष-पुरुष की प्रतिमा अथवा किसी वस्तु में पुरुष का आरोपण । द्रव्यपुरुष-पुरुषरूप में उत्पन्न होने वाला जीव या पुरुष का मृत शरीर। ज्ञानपुरुष-ज्ञानप्रधान पुरुष। दर्शनपुरुष-दर्शनप्रधान पुरुष । १. तुलसीरामायण लंकाकाण्ड पृ०६७३ : जनिजल्पना करि सुजसु नासहि नीतिसुनहि करहि छमा । संसारमहं पुरुष त्रिविध पाटल, रसाल, पनस समा ।। एक सुमनप्रद एक सुमनफल एक फलइ केवल लागहीं। एक कहहिं कहहि करहि अपर एक करहिं कहत न बागहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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