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________________ ठाणं (स्थान) २६४ स्थान ३: टि०६-११ में योग के पन्द्रह प्रकार बतलाए हैं। वे ही पन्द्रह प्रकार प्रज्ञापना में प्रयोग के नाम से तथा आवश्यक में करण के नाम से निर्दिष्ट हैं । अतः इन तीनों में अर्थ भेद का अन्वेषण आवश्यक नहीं है।' ६-(सू० १६) : देखें ७/८४-८६ का टिप्पण। १०-(सू० १७) : प्रस्तुत सूव के आलोच्य शब्द ये हैं१. तथारूप-जीवनचर्या के अनुरूप वेश वाला। २. माहन-अहिंसा का उपदेश देने वाला अहिंसक ।' ३. अस्पर्शक-यह अफासुय शब्द का अनुवाद है । प्राचीन व्याख्या-ग्रन्थों में फासुय का अर्थ प्रासुक (निर्जीव) और अफासुय का अर्थ अप्रासुक (सजीव) किया गया है। प्रस्तुत प्रकरण में वृत्तिकार ने भी यही अर्थ किया है।' पण्डित बेचरदासजी ने फासुय का अर्थ स्पर्शक अर्थात् अभिलषणीय किया है। उन्होंने इसके समर्थन में जो तर्क दिए हैं, वे बुद्धिगम्य हैं। ४. अनेषणीय-गवेषणा के अयोग्य, अकल्पनीय, अग्राह्य । ५. अशन-पेट भर कर खाया जाने वाला आहार। ६. पान-कांजी तथा जल। ७. खाद्य-फल, मेवा आदि। ८. स्वाद्य-लौंग, इलायची आदि । ११-गुप्ति (सू० २१): गुप्ति का शाब्दिक अर्थ हैं-रक्षा। मन, वचन और काय के साथ योग होने पर इसका अर्थ होता है-मन, वचन और काय की अकुशल प्रवृत्तियों से रक्षा और कुशल प्रवृत्तियों में नियोजन । यह अर्थ सम्यक्प्रवृत्ति को ध्यान में रखकर किया गया प्रतीत होता है। असम्यक् की निवृत्ति हुए बिना कोई भी प्रवृत्ति सम्यक् नहीं बनती, इस दृष्टि से सम्यक्प्रवृत्ति में गुप्ति का होना अनिवार्य माना गया है। सम्यक्प्रवृत्ति से निरपेक्ष होकर यदि गुप्ति का अर्थ किया जाए तो इसका अर्थ होगा-निरोध । महर्षि पतञ्जलि ने लिखा है-'चित्तवृत्ति निरोधो योग : (योगदर्शन १११) जैन-दृष्टि से इसका समानान्तर सूत्र लिखा जाए तो वह होगा 'चित्तवृत्ति निरोधो गुप्तिः'। ३. स्थानांगवृत्ति, पन्न १०३ : प्रगता असवः-असुमन्तः प्राणिनो यस्मात् तत्प्रासुकं तन्निषेधादप्रासुर्क सचेतनमित्यर्थः । ४. रत्नमुनिस्मृतिग्रंथ, अध्याय २, पृष्ठ १०० । ५. स्थानांगवृत्ति, पन १०५, १०६ : गोपनं गुप्ति:-मनः प्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनमकुशलानां च निवर्तनमिति आह १. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१, १०२ : अथवा योगप्रयोगकरण शब्दानां मन:प्रभूतिकमभिधेयतया योगप्रयोगकरणसूवेष्वभिहितमिति नार्थभेदोऽन्वेषणीयः, त्रयाणामप्येषामेकार्थतया आगमे बहुशः प्रवृत्तिदर्शनात्, तथाहि-योगः पञ्चदशविधः शतकादिषु व्याख्यात:, प्रज्ञापनायां त्वेवमेवायं प्रयोगशब्देनोक्तः, तथाहिकतिविहे णं भंते ! पओगे पण्णत्ते, गोतमा ! पण्णरसविहे इत्यादि, तथा आवश्यकेऽयमेव करणतयोक्तः, तथाहि___ झुंजणकरणं तिविहं, मणवतिकाए य मणसि सच्चाइ । सट्ठाणे तेसि भेओ, चउ चउहा सत्तहा चेव ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०३ : मा हन इत्याचष्टे यः परं स्वयं हनननिवृत्तः सन्निति स माहनो मूलगुणधरः । मणगुत्तिमाइयाओ, गुत्तीओ तिन्नि समयकेहिं । परियारेयररूवा, णिद्दिवाओ जो भणियं ।। समिओ णियमा गुत्तो, गुत्तो समियत्तणमि भइयव्यो । कुसलवइमुईरंतो, जं बइगुत्तोऽबि समिओऽवि ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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