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________________ ठाणं (स्थान) पुरुष के सात लक्षण ये हैं १. लिङ्ग, २. कठोरता, ३. दृढ़ता, ४. पराक्रम, ५. दाढ़ी और मूंछ, ६. धृष्टता, ७. स्त्री के प्रति अभिलाषा । नपुंसक के लक्षण १. स्तन और दाढ़ी-मूंछ ये कुछ अंशों में होते हैं, परन्तु पूर्ण विकसित नहीं होते । २. प्रज्वलित कामाग्नि । ६-८ योग, प्रयोग, करण ( सू० १३-१५ ) : योग शब्द के दो अर्थ हैं — प्रवृत्ति और समाधि । इनकी निष्पत्ति दो भिन्न-भिन्न धातुओं से होती है । सम्बन्धार्थक 'युज' धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ है - प्रवृत्ति समाध्यर्थक युज् धातु से निष्पन्न होने वाले योग का अर्थ हैसमाधि । प्रस्तुत सूत्र में योग का अर्थ प्रवृत्ति है । उमास्वाति के अनुसार काय, बाङ और मन के कर्म का नाम योग है। जीव के तीन मुख्य प्रवृत्तियों -- कायिकप्रवृत्ति, वाचिकप्रवृत्ति और मानसिक प्रवृत्ति का सूत्रकार ने योग शब्द के द्वारा निर्देश किया है। कर्मशास्त्रीय परिभाषा के अनुसार वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम तथा शरीरनामकर्म के उदय से होने वाला वीर्ययोग कहलाता है। भगवतीसूत्र में एक प्रसंग आता है।" वहां गौतम स्वामी ने पूछा- भंते! योग किससे उत्पन्न होता है ? २. वही भगवान - वीर्य से । गौतम - भंते! वीर्य किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् - शरीर से । गौतम - भंते! शरीर किससे उत्पन्न होता है ? भगवान् जीव से । इस कर्मशास्त्रीय परिभाषा से यह स्पष्ट होता है कि योग जीव और शरीर के साहचर्य से उत्पन्न होने वाली शक्ति है । १. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०० : २६३ वृत्ति में उद्धृत एक गाथा में योग के पर्यायवाची नाम इस प्रकार हैं १. योग २. वीर्य ३. स्थाम ४. उत्साह ५. पराक्रम ६. चेष्टा ७. शक्ति ८. सामर्थ्य । योग के अनन्तर प्रयोग का निर्देश है। प्रज्ञापना ( पद १६) के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि योग और प्रयोग दोनों एकार्थक हैं। प्रयोग के अनन्तर सूत्रकार ने करण का निर्देश किया है। वृत्तिकार ने करण का अर्थ - मनन, वचन और स्पंदन की क्रियाओं में प्रवर्तमान आत्मा का सहायक पुद्गल समूह किया है।" वृत्तिकार ने योग, प्रयोग और करण की व्याख्या करने के पश्चात् यह बतलाया है कि ये तीनों एकार्थक हैं। भगवती Jain Education International मेहनं खरता दाढ्यं शौण्डीर्य श्मश्रुष्टता । स्त्रीका मितेति लिङ्गानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥ स्तनादिश्मश्रु केशादिभावाभावसमन्वितम् । नपुंसकं बुधा: प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ ३. तवार्थसूत्र, ६।१ : कायवाङ, मनः कर्म योगः । ४. भगवती सूत्र १।१४३ - १४५ : स्थान ३ : टि० ६-८ से णं भंते! जोए कि पवहे ? गोमा ! वोरियप्पवहे । से णं भंते! वोरिए कि पवहे ? गोमा ! सरोरप्यवहे | से णं भंते! सरीरे कि पवहे ? गोयमा ! जीवप्पवहे । ५. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१ : जोगो वीरियं थामो, उच्छाह परक्कमो तहा चेट्ठा । सत्ती सामत्यन्ति य, जोगस्स हवंति पज्जाया || ६. स्थानांगवृत्ति, पत्र १०१ : क्रियते येन तत्करणं - मननादि - क्रियासु प्रवर्त्तमानस्यात्मन उपकरणभूतस्तथा तथापरिणामवत्पुद्गल सङ्घात इति भावः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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