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________________ ठाणं (स्थान) २६२ स्थान ३ : टि० ३-५ तीन को आदि लेकर आगे की संख्या वगित करने पर चूंकि बढ़ती है और उसमें से वर्गमूल को कम करके पुनः वर्ग करने पर भी वृद्धि को प्राप्त होती है इस कारण उसे कृति कहा है।' इस व्याख्या सेनो कृति -१, २, ३, ४, ५ अवक्तव्य कृति–२, ४, ६, ८, १० कृति-३, ४, ५,.... एक को आदि लेकर एक अधिक क्रम से वृद्धि को प्राप्त राशि नो कृतिसंकलना है। दो को आदि लेकर दो अधिक क्रम से वृद्धि को प्राप्त राशि अवक्तव्यसंकलना है। तीन, चार, पांच आदि में अन्यतर को आदि करके उनमें ही अन्यतर के अधिक क्रम से वृद्धिगत राशि कृतिसंकलना है। इसकी स्थापना इस प्रकार है नो कृतिसंकलना-१,२,३,४,५,६. आदि संख्यात असंख्यात । अवक्तव्यसंकलना-२,४,६,८,१०,१२."आदि संख्यात असंख्यात । कृतिसंकलना-३, ६, ६, १२, ४, ८, १२, १६, ५, १०, १५, २० आदि संख्यात असंख्यात । श्वेताम्बर और दिगम्बर-परम्परा का यह अर्थ-भेद सचमुच आश्चर्यजनक है। कति और कृति दोनों का प्राकृत रूप कति या कदि बन सकता है। ३-एकेन्द्रिय (सूत्र ८): एकेन्द्रिय में प्रतिसमय असंख्यात या [वनस्पति विशेष में ] अनन्त जीव उत्पन्न होते हैं। अत: वे अकतिसंचित ही होते हैं। इसलिए उनके तीन विकल्प नहीं होते। ४-परिचारणा (सूत्र ६) : परिचारणा का अर्थ है-मैथुन का सेवन । तत्त्वार्थसूत्र में परिचारणा के अर्थ में प्रवीचार शब्द का प्रयोग किया गया है। प्रवीचार पांच प्रकार का होता है १. कायप्रवीचार-कायिक मैथुन । २. स्पर्शप्रवीचार-स्पर्श मात्र से होने वाली भोगतृप्ति। ३. रूपप्रवीचार-रूप देखने मात्र से होने वाली भोगतृप्ति । ४. शब्दप्रवीचार--शब्द सुनने मात्र से होने वाली भोगतृप्ति । ५. मनःप्रवीचार-संकल्प मात्र से होने वाली भोगतृप्ति। देखें ५।५४ का टिप्पण। ५-मैथुन (सूत्र १२): वृत्तिकार ने स्त्री, पुरुष और नपुंसक के लक्षणों का संकलन किया है। उसके अनुसार स्त्री के सात लक्षण हैं१. योनि, २. मृदुता, ३. अस्थिरता, ४. मुग्धता, ५. क्लीवता, ६. स्तन, ७. पुरुष के प्रति अभिलाषा। १. षट्खंडागम-वेदनाखण्ड-कृति अनुयोग द्वार। २. स्थानांगवृत्ति, पन १०० : परिचारणा देवमैथुनसेवा। ३. तत्त्वार्थसूत्र, ४।८ : कायप्रवीचारा आ ऐशानात् । ४. तत्त्वार्थसूत्र, ४१६: शेषाः स्पर्श-रूप-शब्द-मन:-प्रवीचारा द्वयो ईयोः । ५. स्थानांगवृत्ति, पन १००: योनि मृदुत्वमस्थैर्य, मुग्धत्वं क्लीबता स्तनो। पुंस्कामितेति लिङ्गानि, सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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