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टिप्पणियाँ स्थान-३
१-विक्रिया (सूत्र ४) :
विक्रिया का अर्थ है-विविध रूपों का निर्माण या विविध प्रकार की क्रियाओं का सम्पादन । वह दो प्रकार की होती है—भवधारणीय [जन्म के समय होने वाली] और उत्तरकालीन । प्रस्तुत सूत्र में विक्रिया के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं
१. पर्यादाय, २. अपर्यादाय, ३. पर्यादाय-अपर्यादाय ।
भवधारणीय शरीर से अतिरिक्त रूपों का निर्माण [उत्तरकालीन विक्रिया बाह्यपुद्गलों का ग्रहण कर की जाती है, इसलिए उसकी संज्ञा पर्यादाय विक्रिया है।
भवधारणीय विक्रिया बाह्यपुद्गलों को ग्रहण किए बिना होती है, इसलिए उसकी संज्ञा अपर्यादाय विक्रिया है।
भवधारणीय शरीर का कुछ विशेष संस्कार करने के लिए जो विक्रिया की जाती है उसमें बाह्यपुद्गलों का ग्रहण और अग्रहण-दोनों होते हैं, इसलिए उसकी संज्ञा पर्यादाय-अपर्यादाय विक्रिया है।
वृत्तिकार ने विक्रिया का दूसरा अर्थ किया है-भूषित करना। बाह्यपुद्गलआभरण आदि लेकर शरीर को विभूषित करना पर्यादायविक्रिया होती है और बाह्यपुद्गलों का ग्रहण न करके केश, नख आदि को संवारना अपर्यादाय विक्रिया कहलाती है।
बाह्यपुद्गलों के लिए बिना गिरगिट अपने शरीर को नाना रंगमय बना लेता है तथा सर्प फणावस्था में अपनी अवस्था को विशिष्ट रूप दे देता है।
२.-कतिसंचित (सूत्र ७):
कति शब्द का अर्थ है कितना। यहां वह संख्येय के अर्थ में प्रयुक्त है। यहां कति, अकति और अवक्तव्य ये तीन शब्द हैं। कति का अर्थ संख्या से है अर्थात् दो से लेकर संख्यात तक। अकति का अर्थ असंख्यात और अनन्त से है । अवक्तव्य का अर्थ एक से है, एक को संख्या नहीं माना जाता।
भगवतीसूत्र, शतक २०, उद्देशक १० के नौवें प्रश्न में बताया गया है कि नरकगति में नैरयिक एक साथ संख्यात उत्पन्न होते हैं। उत्पत्ति की समानता से बुद्धि द्वारा उनका संग्रह करके उन्हें कतिसंचित कहा है। नरकगति में नैरयिक असंख्यात भी एक साथ उत्पन्न होते हैं, इसलिए उन्हें अकतिसंचित भी कहा है। नरकगति में नैरयिक जघन्यतः एक ही उत्पन्न होता है, इसलिए उसे अवक्तव्यसंचित कहा है।
दिगम्बर सम्प्रदाय में कति शब्द के स्थान पर कदी शब्द आया है। उसका अर्थ कृति किया गया है। इनकी व्याख्या भी भिन्न है। कृति शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है जो राशि वगित होकर वृद्धि को प्राप्त होती है और अपने वर्ग में से अपने वर्ग के मूल को कम कर वर्ग करने पर वृद्धि को प्राप्त होती है उसे कृति कहते हैं।
एक संख्या वर्ग करने पर वृद्धि नहीं होती तथा उसमें से वर्गमूल के कम करने पर वह निर्मूल नष्ट हो जाती है, इस कारण एक संख्या नोकृति है। दो संख्या का वर्ग करने पर चूंकि वृद्धि देखी जाती है अतः दो को नोकृति नहीं कहा जा सकता और चूंकि उसके वर्ग में से मूल को कम करके वगित करने पर वह वृद्धि को प्राप्त नहीं होती, किन्तु पूर्वोक्त राशि ही रहती है अत: दो कृति भी नहीं हो सकती, इसलिए दो संख्या अवक्तव्य है।
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