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ठाणं (स्थान)
१२८. स्वाध्याय ( सू २२० )
देखें— उत्तरज्झयणाणि २६।१८ तथा ३०।१४ के टिप्पण ।
१२-१३१. ( सू० २२१ )
अनुभाषणाशुद्ध — इसमें गुरु प्रथम पुरुष की भाषा में बोलते हैं और प्रत्याख्यान करने वाला दोहराते समय उत्तम पुरुष की भाषा में बोलता है। मूलाचार में कहा है
'गुरु के प्रत्याख्यान - वचन का अक्षर, पद, व्यंजन, क्रम और घोष का अनुसरण कर दोहराना अनुभाषणाशुद्ध प्रत्याख्यान है।
अनुपालनाशुद्ध इसको स्पष्ट करते हुए मूलाचार में कहा है कि आतंक, उपसर्ग, दुर्भिक्ष या कान्तार में भी प्रत्याख्यान का पालन करना, उसको भग न करना अनुपालनाशुद्धप्रत्याख्यान है।"
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भावशुद्ध --- इसका अर्थ है - शुभयोग से अशुभ योग में चले जाने जाने पर पुनः शुभयोग में लौट आना । जिससे मनःपरिणाम राग-द्वेष से दूषित नहीं होता उसे भावशुद्ध प्रत्याख्यान कहा जाता है।'
१३२. प्रतिक्रमण ( सू० २२२ )
प्रतिक्रमण का अर्थ है - अशुभ योग में चले जाने पर पुनः शुभ योग में लौट आना । प्रस्तुत सूत्र में विषय-भेद के आधार पर प्रतिक्रमण के पाँच प्रकार किए गए हैं
१. आस्रवप्रतिक्रमण प्राणातिपात आदि आस्रवों से निवृत्त होना। इसका तात्पर्य है असंयम से प्रतिक्रमण करना । २. मिथ्यात्वप्रतिक्रमण - मिथ्यात्व से पुनः सम्यक्त्व में लौट आना ।
३. कषायप्रतिक्रमण कषायों से निवृत्त होना ।
१३३, १३४. (सू० २३०, २३१ )
देखें - १०१२५ का टिप्पण ।
४. योगप्रतिक्रमण - मन, वचन और काया की अशुभ प्रवृत्ति से निवृत्त होना, अप्रशस्त योगों से निवृत्ति ।
५. भावप्रतिक्रमण - इसका अर्थ है-- मिथ्यात्व आदि में स्वयं प्रवृत्त न होना, दूसरों को प्रवृत्त न करना और प्रवृत्त होने वाले का अनुमोदन न करना । *
विशेष की विवक्षा करने पर चार विभाग होते हैं
१. मिथ्यात्व प्रतिक्रमण
३. कषायप्रतिक्रमण
२. असंयम प्रतिक्रमण
४. योगप्रतिक्रमण
और उसकी विवक्षा न करने पर उन चारों का समावेश भाव प्रतिक्रमण में हो जाता है।"
१३५. ( सू० २३४ )
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स्थान ५ : टि० १२८-१३५
देखें - समवाओ १६।५ का टिप्पण ।
१. मूलाचार, श्लोक १४४ :
अणुभासादि गुरुवणं अक्ख रपयवजणं कमविसुद्धं । घोसविसुद्धिसुद्ध एद अणुभासणासुद्धं ।। २. वही, श्लोक १४५ :
आदके उवसग्गे समे यदुभिक्खवृत्ति कंतारे | जं पालिदं ण भग्गं एवं अणुपालणासुद्धं ॥ ३. वही, श्लोक १४६ :
रागेण व दोसेण व मणपरिणामे ण दूसिदं जं तु । तं पुण पञ्चक्खाणं भावविसुद्ध तु णादव्वं ।।
४. स्थानांगवृत्ति, पत्र ३३२ : मिच्छत्ताइ न गच्छइ न य गच्छावेइ नाणुजाणाइ । जं मणवइकाएहि तं भणिय भावपडिक्कमणं । ५. वही, पत्र ३३२ :
आश्रवद्वारा दिमिति विशेष विवक्षायां तूक्ता एवं चत्वारो भेदाः, यदाह
"मिच्छत्तपडिक्कमणं तहेव अस्संजमे पडिक्कमणं । कसायाण पडिक्कमणं जोगाण व अप्पसत्थाणं ||
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