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________________ ठाणं (स्थान) १३६ स्थान २ : टि० ११७-१२१ होता है, रस का नहीं होता उसे प्रदेशकर्म कहते हैं। जिस कर्म के बंधे हुए रस के अनुसार वेदन होता है उसे अनुभावकर्म कहते हैं। वृत्तिकार ने यहां प्रदेशकर्म और अनुभावकर्म का यही (उदय सापेक्ष ) अर्थ किया है । किन्तु यहां कर्म की दो मूल अवस्थाओं का अर्थ संगत होता है, तब फिर उसकी उदय अवस्था का अर्थ करने की अपेक्षा ज्ञात नहीं होती। ११७ (सू० २६६) समुच्चयदृष्टि से विचार करने पर आयुष्य के दो रूप फलित होते हैं—पूर्णआयु और अपूर्णआयु । देव और नरयिक ये दोनों पूर्णआयु वाले होते हैं। मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यंच अपूर्णआयु वाले भी होते हैं। इनमें असंख्येय वर्ष की आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्य तथा उत्तम पुरुष और चरम शरीरी मनुष्य पूर्णआयु वाले ही होते हैं। इनका यहां निर्देश नहीं है। ११८ आयुष्य का संवर्तन (सू० २६७) सातवें स्थान (७७२) में आयुःसंवर्तन के सात कारण निर्दिष्ट हैं। ११६ काल (सू० ३२०) छठे स्थान (६।२३) में ६ प्रकार के काल का निर्देश मिलता है-सुषम-सुषमा, सुषमा, सुषम-दुःषमा, दुःषमसुषमा, दुषमा, दुःषम-दुःषमा। १२० नक्षत्र (सू० ३२४) यजुर्वेद के एक मंत्र में २७ नक्षत्रों को गन्धर्व कहा है। इससे यह प्रतीत होता है कि उस समय २७ नक्षत्रों की मान्यता थी। अथर्ववेद (अध्याय संख्या १६७) में कृत्तिकादि २८ नक्षत्रों का वर्णन है। इसी प्रकार तैत्तिरीयश्रुति में २७ नक्षत्रों के नाम, देवता, वन्दन और लिङ्ग भी बताए गए हैं। उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का नाम छोड़ा गया है । नक्षत्रों का क्रम इस सूत्र के अनुसार ही है और देवताओं के नाम भी बहुलांश में मिलते-जुलते हैं। १२१ (सू० ३२५) तिलोयपण्णत्ती में ८८ नक्षत्रों के निम्नोक्त नाम हैं बुध, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि, काल, लोहित, कनक, नील, विकाल, केश, कवयव, कनकसंस्थान, दुन्दुभक रक्तनिभ, नीलाभास, अशोकसंस्थान, कंस, रूपनिभ, कसकवर्ण, शंखपरिणाम, तिलपुच्छ, शंखवर्ण, उदकवर्ण, पंचवर्ण, उत्पात, धूमकेतु, तिल, नभ, क्षारराशि, विजिष्णु, सदृश, सन्धि, कलेवर, अभिन्न, ग्रन्थि, मानवक, कालक, कालकेतु, निलय, अनय, विद्युज्जिह, सिंह, अलख, निर्दुःख, काल, महाकाल, रुद्र, महारुद्र, संतान, विपुल, सम्भव, सर्वार्थी, क्षेम, चन्द्र, निमन्त्र, ज्योतिषमान, दिशसंस्थित, विरत, वीतशोक, निश्छल, प्रलम्ब, भासुर, स्वयंप्रभ, विजय, वैजयन्त, सीमकर, अपराजित, जयंत, विमल, अभयंकर, विकस काष्ठी, विकट, कज्जली, अग्निज्वाल, अशोक, केतु, क्षीरस, अघ, श्रवण, जलकेतु, केतु, अन्तरद, एक संस्थान, अश्व, भावग्रह, महाग्रह । सर्यप्रज्ञप्ति में नील और नीलाभास ग्रह रुक्मी और रुक्माभास से पहले है। १. स्थानांगवृत्ति, पत्र ६३ : प्रदेशा एव पुद्गला एव यस्य वेद्यन्ते न यथा बद्धो रसस्तत्प्रदेशमानतया वेद्यं कर्म प्रदेशकर्म, यस्य स्वनुभावो यथाबद्धरसो वेद्यते तदनुभावतो वेद्यं कर्मानुभावकर्मेति । २. भारतीय ज्योतिष, नेमिचन्द्रकृत, पत्र ६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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