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ठाणं (स्थान)
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स्थान २ : टि० ११३-११६
मनुष्य और तिर्यञ्च गर्भ से पैदा होते हैं, इसलिए उनके गर्भाशय में उत्पन्न होने को गर्भ - अवक्रान्ति कहा
जाता है ।
११३ (सू०२५६ )
प्रस्तुत सूत्र में मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च जीवों के गर्भ की अवस्था उनके गर्भ में रहते हुए उसकी गतिविधियों, गर्भ से निष्क्रमण और मृत्यु की अवस्था का वर्णन है ।
निवृद्धि - वात, पित आदि दोषों के द्वारा होने वाली शरीर की हानि ।
विक्रिया -- जिन्हें वैक्रिय लब्धि प्राप्त हो जाती है, वे गर्भ में रहते हुए भी उस लब्धि के द्वारा विभिन्न शरीरों की रचना कर लेते हैं ।
गतिपर्याय- वृत्तिकार ने इसके तीन अर्थ किए हैं
१. गति का सामान्य अर्थ है जाना ।
२. इसका दूसरा अर्थ है - वर्तमानभव से मरकर दूसरे भव में जाना ।
३. गर्भस्थ मनुष्य और तिर्यंच का वैक्रिय शरीर के द्वारा युद्ध के लिए जाना। यहां गति के उत्तरवतीं दो अर्थ विशेष सन्दर्भों में किए गए हैं।
कालसंयोग — देव और नैरयिक अन्तर्मुहूर्त में पूर्णांग हो जाते हैं, किन्तु मनुष्य और तिर्यंच काल-क्रम के अनुसार अपने अंगों का विकास करते हैं- विभिन्न अवस्थाओं में से गुजरते हैं ।
आयाति - गर्भ से बाहर आना ।
११४ ( सू० २५-२६१ )
जीव एक जन्म में जितने काल तक जीते हैं उसे 'भव स्थिति' और मृत्यु के पश्चात् उसी जीव-निकाय के शरीर में उत्पन्न होने को 'काय स्थिति' कहा जाता है ।
मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लगातार सात-आठ जन्मों तक मनुष्य और तिर्यञ्च हो सकते हैं। इसलिए उनके काय स्थिति और भवस्थिति - दोनों होती हैं। देव और नैरयिक मृत्यु के अनन्तर देव और नैरयिक नहीं बनते, इसलिए उनके केवल भवस्थिति होती है, कार्यस्थिति नहीं होती ।
११५ (सू० २६२)
जो लगातार कई जन्मों तक एक ही जाति में उत्पन्न होता रहता है, उसकी पारम्परिक आयु को अद्धव- आयुष्य या कास्थिति का आयुष्य कहा जाता है। पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के जीव उत्कृष्टतः असंख्यकाल तक अपनी-अपनी योनि में रह सकते हैं । वनस्पतिकाय अनन्तकाल तक तीन विकलेन्द्रिय संख्यात वर्षों तक और पंचेन्द्रिय सात या आठ जन्मों तक अपनी-अपनी योनि में रह सकते हैं। '
जिस जाति में जीव उत्पन्न होता है उसके आयुष्य को भव-आयुष्य कहा जाता है ।
११६ (०२६५)
कर्म-बंध की चार अवस्थाएं होती हैं- प्रकृति, स्थिति, अनुभाव ( भाग) और प्रदेश' । प्रस्तुत सूत्र में इनमें से दो अवस्थाए प्रतिपादित हैं। प्रदेश- कर्म का अर्थ है - कर्म परमाणुओं की संख्या का परिमाण । अनुभावकर्म का अर्थ है, कर्म की फल देने की शक्ति ।
कर्म का उदय दो प्रकार का होता है-प्रदेशोदय और विपाकोदय। जिस कर्म के प्रदेशों (पुद्गलों) का ही वेदन
१. देखें उत्तराध्ययन १०१५ से १३
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२. उत्तराध्ययन, अध्ययन ३३ ।
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