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________________ ठाणं (स्थान) ६८ (४) अन्वाचय - मुख्य काम या विषय के साथ गौण काम या विषय जोड़ना । (५) अवधारण- निश्चय । (६) पादपूरण - पदपूर्ति । जैसे -' इत्थियो समणाणि य' २. मंकार अनुयोग - जेणामेव से सिद्ध नहीं है। उसके अनुसार इसका रूप 'जेणेव' 'तेणेव' होता है। ३. पिंकार अनुयोग ( अपि' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे—सम्भावना, निवृत्ति, अपेक्षा, समुच्चय, गर्हा, शिष्यामर्षण - विचार, अलंकार तथा प्रश्न । एवंपि एंगे आसासे' - यहाँ 'अपि का प्रयोग, ऐसे भी' और, अन्यथा भी' -- इन दो प्रकारान्तों का समुच्चय करता है। ४. सेयंकार अनुयोग - ' से ' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे- अथ, वह, उसका आदि। ' से भिक्खु' – यहाँ से का अर्थ अथ है। स्थान १० : टि० ३६ यहाँ 'च' शब्द समुच्चय के अर्थ में प्रयुक्त है। तेणामेव यहाँ 'मकार' का प्रयोग आगमिक है, अलाक्षणिक है- प्राकृत व्याकरण 'न से चाइति वुच्चई' - यहाँ से का अर्थ वह (वे ) है । अथवा 'सेय' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे—श्रेयस कल्याण । Jain Education International एष्यत्काल- भविष्यत काल आदि । 'सेयं मे अहिज्जिकं अज्झयणं' - यहाँ 'सेय' शब्द 'श्रेयस' के अर्थ में प्रयुक्त है। 'सेय काले अकम्मं वावि भवइ' - यहाँ 'सेय' शब्द भविष्यत काल का द्योतक है। ५. सायंकार अनुयोग - 'सायं' शब्द के अनेक अर्थ हैं, जैसे -- सत्य, सद्भाव, प्रश्न आदि | ६. एकत्व अनुयोग 'नाणं च दंसणं चेव, चरिते य तवो तहा । एस मग्गुत्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदसिहि । उत्तरा ||२८|२ यहाँ ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप के समुदितरूप को ही मोक्ष मार्ग कहा है। इसलिए बहुतों के लिए भी 'मग्ग' यह एकवचन का प्रयोग है। ७. पृथक्त्व अनुयोग - जैसे - धम्मत्थिकाये, धम्पत्थिकायदे से, धम्मत्थिकायप्पदेसा यहाँ — धम्मत्थिकायप्पदेसा — इसमें दो के लिए बहुवचन नहीं है किन्तु धर्मास्तिकाय के प्रश्नों का असंख्यत्व बतलाने के लिए है । ८. संयूथ अनुयोग — सम्मत्तदंसणसुद्ध' इस समासान्त पद का विग्रह अनेक प्रकार से किया जा सकता है, जैसे - (१) सम्यग्दर्शन के द्वारा शुद्ध (तृतीया ) (२) सम्यग्दर्शन के लिए शुद्ध ( चतुर्थी) (३) सम्यग्दर्शन से शुद्ध (पंचमी) ६. संक्रामित अनुयोग -- जैसे - 'साहूणं वंदणेणं नासति पावं असंक्रिया भावा' साधु को वंदना करने से पाप का नाश होता है और साधु के पास रहने से भाव अशंकित होते हैं । यहाँ वंदना के प्रसंग में 'साहूणं' वष्ठी विभक्ति है। उसका भाव अशंकित होने के सम्बन्ध में पंचमी विभक्ति के रूप में संक्रमण कर लेना चाहिए। वचन-संक्रमण --- जैसे - अच्छंदा जे न भुंजति, न से चाइत्ति वुच्चई' – यहाँ से चाई' यह बहुवचन के स्थान में एक वचन है । १०. भिन्न अनुयोग - जैसे - तिविहं तिविहेणं' - यह संग्रह वाक्य है। इसमें (२) मणेणं वायाए कायेणं (२) न करेमि, न कारवेमि, करंतं पि अन्नं न समणुजागामि- इन दो खंडों का संग्रह किया गया है। द्वितीय खंड 'न करेमि' आदि तीन वाक्यों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है और प्रथम खंड 'मणेणं' आदि तीन वाक्यांशों में 'तिविहेणं' का स्पष्टीकरण है। यहाँ 'न करेमि' आदि बाद में हैं और 'मणेणं' आदि पहले यह क्रम भेद है। कालभेद - जैसे 'सक्के देविदे देवराया वंदति नम॑सति' - यहाँ अतीत के अर्थ में वर्तमान की क्रिया का प्रयोग है। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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