SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1031
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६६० स्थान १० : टि० ३७ वृत्तिकार ने लिखा है कि १० ६४, ५५, ६६ - - ये तीन सूत्र अत्यन्त गम्भीर होने के कारण दूसरे प्रकार से भी विमर्शनीय हैं। यह दूसरा प्रकार क्या हो सकता है यह अन्वेषणीय है । ' ३७. ( सू० ६७ ) भारतीय संस्कृति में दान की परम्परा बहुत प्राचीन है। दान का अर्थ है - देना । इस देने की पृष्ठभूमि में अनेक प्रेरणाएं काम करती रही हैं। वे प्रेरणाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ व्यक्ति दूसरों की दीन-दशा से द्रवित होकह दान देते हैं, भय से प्रेरित होकर दान देते हैं और कुछ अपनी ख्याति के लिए दान देते हैं । प्रस्तुत सूत्रगत दस दानों का निरूपण तत्कालीन समाज में प्रचलित प्रेरणाओं का इतिहास है । वाचकमुख्य उमास्वाति ने उनकी व्याख्या इस प्रकार की है। १. अनुकम्पादान - 'कृपणेऽनाथदरिद्रे व्यसनप्राप्ते च रोगशोकहते । यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम् ॥ -- कृपण, अनाथ, दरिद्र, दुःखी, रोगी और शोकग्रस्त व्यक्ति पर करुणा लाकर जो दान दिया जाता है, वह अनुकम्पा दान है। २. संग्रहृदान 'अभ्युदये व्यसने वा यत्किञ्चिद्दीयते सहायार्थम् । तत् संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्दानं न मोक्षाय || किसी भी व्यक्ति को उसके अभ्युदयकाल या कष्टदशा में सहायता देने के लिए जो दान दिया जाता है, वह संग्रह दान है। ३. भयदान 'राजा रक्ष पुरोहितमधु मुखमावल्ल दण्डपाशिषु च । यद्दीयते भयार्थात् तद्भयदानं बुधैर्ज्ञेयम् ॥' - जो दान राजा, आरक्षक, पुरोहित, मधुमुख, चुगलखोर और कोतवाल आदि के भय से दिया जाता है, वह भय - दान है । ४. कारुण्यदान — कारुण्य का अर्थ शोक है। अपने प्रियजन का वियोग होने पर उसके उपकरण - वस्त्र खटिया, आदि दान में देते हैं। इसके पीछे एक लौकिक मान्यता है कि उसके उपकरण दान में देने पर वह जन्मान्तर में सुखी होता है। इस प्रकार का दान कारुण्यदान कहलाता है। वास्तव में यह कारुण्यजन्य ( शोकजन्य ) दान है। फिर भी कार्यकारण का अभेद मानकर इसकी संज्ञा कारुण्यदान की गई है। ५. लज्जादान - "अभ्यर्थितः परेण तु यद्दानं जनसमूहमध्यगतः । परचित्तरक्षणार्थं लज्जायास्तद्भवेद्दानम् ।।” जनसमूह के बीच कोई किसी से याचना करता है तब बह दाता दूसरे की बात रखने के लिए दान देता है, यह लज्जादान है। ६. गौरवदान - Jain Education International 'नट्टत्तंमुष्टिकेभ्यो दानं संबंधिबंधुमितेभ्यः । यद्दीयते यशोर्थं गर्वेण तु तद् भवेद्दानम् ॥' १. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७० इदं च दोषादि सूत्रत्रयमन्यथापि विमर्शनीयं गम्भीरत्वादस्येति । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy