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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० ३८
दान अपने यश के लिए नट, नृत्यकार, मुक्केबाजों तथा अपने सम्बन्धि, बन्धु और मित्रों को दिया जाता है, वह
गौरव दान है ।
७. अधर्मदान
'हिसानृतचौर्योद्यतपरदारपरिग्रहप्रसक्तेभ्यः । यद्दीयते हि तेषां तज्जानीयादधर्माय ।।'
जो व्यक्ति हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार और संग्रह में आसक्त हैं, उन्हें जो दान दिया जाता है, वह अधर्म दान है। ८. धर्मदान
'समतृणमणिमुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रेभ्यः ।
अक्षयमतुलमनन्तं तद्दानं भवति धर्माय ॥ '
जो तृण, मणि और मुक्ता में समभाव वाले हैं, जो सुपात हैं, उन्हें दिया जाने वाला दान धर्मदान है । यह दान अक्षय है, अतुल है और अनन्त है ।
६. करिष्यतिदान—भविष्य में यह मेरा उपकार करेगा, इस बुद्धि से किया जाने वाला दान करिष्यतिदान है। १०. कृतमिति दान -
'शतशः कृतोपकारो दत्तं च सहस्रशो ममानेन ।
अहमपि ददामि किञ्चित् प्रत्युपकाराय तद्दानम् 12'
‘इसने मेरा सैंकड़ों बार उपकार किया है और इसने मुझे हजारों बार दिया है। मैं भी इसका कुछ प्रत्युपकार करूं ।' इस भावना से दिया जाने वाला दान कृतमिति दान है ।
३८. ( सू० १८ )
विग्रहगति — यहाँ वृत्तिकार ने इसका अर्थ - आकाश विभाग का अतिक्रमण कर होने वाली गति - किया है।
भगवती में एक सामयिक, द्वि-सामयिक, त्रि-सामयिक और चनुःसामयिक विग्रहगति का उल्लेख मिलता है।' एकसामयिक विग्रहगति में जो विग्रह शब्द है उसका अर्थ वक्र या घुमाव नहीं है । वहाँ बताया है कि एक सामयिक विग्रहगति से वही जीव उत्पन्न होता है जिसका उत्पत्ति-स्थान ऋजु आयात श्रेणी में होता है । *
ऋजु श्रेणी में उत्पन्न होने वाले की गति ऋजु होती है । उसमें कोई घुमाव नहीं होता । तत्वार्थ टीका में इस विग्रह का अर्थ अवच्छेद या विराम किया गया है।"
प्रथम चार गतियों में उत्पन्न होने वाले जीव ऋजु और वक्र- इन दोनों गतियों से गमन करते हैं । वृत्तिकार का यह आशय है कि प्रत्येक गति के दूसरे पद में 'विग्रह' का प्रयोग है, इसलिए प्रथम पद की व्याख्या ऋजु गति के आधार पर की जानी चाहिए ।
सिद्धगति में उत्पन्न होने वाले जीव केवल ऋजु गति से ही गमन करते हैं। उनके विग्रहगति नहीं होती । फलत: 'सिद्धि विग्गगति' यह दसवां पद ही नहीं बनता । वृत्तिकार ने इसका अर्थ - सिद्धि अविग्गहगती' इस पाठ के आधार पर
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१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४७०, ४७१ ।
२. स्थानांगवृत्ति पत्र ४७१ : विग्रहान् क्षेत्र विभागान् अतिक्रम्य
गतिः गमनम् ।
३. भगवती ३४५२: गोयमा ! एगसमइएण वा दुसमइएण वा तिसमइएण वा चउसमइएण वा ।
४. भगवती ३४ | ३ उज्जुआ पाए सेढीए उववज्जमाणे एगसमइणं विग्गणं उववज्जेज्जा ।
५. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र २२६, वृत्ति पत्र १८३, १८४ : एक समयेन
वा विग्रहेणोत्पद्येतेति विग्रहशब्दोऽतावच्छेदवचनो न वत्रताभिधायीत्यतोऽयमर्थः - एक समयेन वाऽवच्छेदेन विरामेण । कस्यावच्छेदेनेति चेत् ? सामर्थ्याद् गतेरेव, एकसमय परिणामगतिकालोत्तरभाविनाऽवच्छेदेनोत्पद्येत ।
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