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ठाणं (स्थान)
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स्थान १०:टि०३६
थी। उदाहरण के लिए हम 'अत्तणा उवणीते य' इस पद को लेते हैं। वृत्तिकार ने दोनों में शेष का अध्याहार कर इनकी व्याख्या की है। किन्तु अन्य स्थलों के अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि 'अत्तणा उवणीते' (सं० आत्मना उपनीतं) यह विशेष का एक ही प्रकार होना चाहिए। चौथे स्थान (सूत्र ५०२) से आहरणतद्दोष (साध्यविकल उदाहरण) का तीसरा प्रकार 'अत्तोवणीत' (सं० आत्मोपनीत) है । परमत में दोष दिखाने के लिए दृष्टान्त प्रस्तुत किया जाए और उससे स्वमत दूषित हो जाए, उसे 'आत्मोपनीत' नामक आहरणतद्दोष कहा जाता है।
ऐसा करने पर विशेष की संख्या नौ रह जाती है। इस संग्रहगाथा के चतुर्थ चरण में विसेसे' और 'ते' ये दो शन्द हैं। वृत्तिकार ने इस विशेष को भावनावाक्य माना है और 'ते' को विशेष का सर्वनाम।' उन्होंने 'अत्तणा' और 'उवणीत' को पृथक् माना इसलिए उन्हें ऐसा करना पड़ा। यदि इन्हें दो नहीं माना जाता तो विशेष का दसवां प्रकार 'विशेष' होता। इसका अर्थ विशेष नामक वस्तु-धर्म किया जा सकता है । वस्तु में दो प्रकार के धर्म होते हैं-सामान्य और विशेष । विशेष के दो प्रकार हैं-गुण और पर्याय ।
___ इसी प्रकार प्रत्युत्पन्न का वृत्तिगत अर्थ भी विचारणीय है। वृत्तिकार के अनुसार इसका अर्थ है-वस्तु को केवल वार्तमानिक या प्रत्युत्पन्न मानने पर कृतकर्म के प्रणाश और अकृत कर्म के भोग की आपत्ति होना । गाथा में पड़पन्न' शब्द पडुप्पन्नविणासी' का संक्षिप्त रूप हो सकता है। 'पडुष्पन्नविणासी' आहारण का एक प्रकार है। उसका अर्थ है-उत्पन्न दूषण का परिहार करने के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला दृष्टान्त ।
प्रस्तुत सूत्र में विशेष का वर्गीकरण है। विशेष सामान्य के प्रतिपक्ष में होता है। इससे यह फलित होता है कि इन दसों विशेषों के प्रतिपक्ष में दस सामान्य होने चाहिए जैसेवस्तुदोषविशेष
वस्तुदोषसामान्य तज्जातदोषविशेष
तज्जातदोषसामान्य दोषविशेष
दोषसामान्य एकाथिकविशेष
एकाथिक सामान्य आदि-आदि। सूत्रकार के सामने निर्दिष्ट वर्गीकरण के सामान्य और विशेष क्या रहे हैं, इसे जानने के साधन सुलभ नहीं हैं। फिर भी यह अनुसंधेय अवश्य है । वृत्तिकार ने दोष विशेष के अन्तर्गत पूर्व सूत्र निर्दिष्ट मतिभंग, प्रशास्तृ, परिहरण, स्वलक्षण, कारण, हेतु, संक्रमण, निग्रह आदि दोषों का संग्रह किया है। उनके अनुसार प्रस्तुत सूत्र में ये विशेष की कोटि में आते हैं।
एकाथिक विशेष की व्याख्या समभिरूढ नय की दृष्टि से की जा सकती है । साधारणतया शब्दकोषों में एक वस्तु के अनेक नामों को एकार्थक या पर्यायवाची माना जाता है। किन्तु समभिरूढ नय की दृष्टि से शब्द एकार्थक नहीं होते। वह निरुक्ति की भिन्नता के आधार पर प्रत्येक शब्द का स्वतंत्र अर्थ स्वीकार करता है। जैसे—भिक्षा करने वाला भिक्ष, मौन करने वाला वाचंयम, इन्द्रिय और मन का दमन करने वाला दान्त।
अधिक दोष विशेष न्यायदर्शन के 'अधिक' नामक निग्रहस्थान से तुलनीय है। ३६. (सू० ९६)
१. चंकार अनुयोग-चकार शब्द के अनेक अर्थ हैं
(३) समाहार-संहति, एक ही तरह हो जाना। (२) इतरेतरयोग-मिलित व्यक्तियों या वस्तुओं का सम्बन्ध । (३) समुच्चय-शब्दों या वाक्यों का योग ।
१. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६६ :
अत्तणत्ति आत्मना कृतमिति शेषः ।
उपनीतं प्रापितं परेणेति शेषः ।। २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६६ : चकारयोविशेषशब्दस्य च प्रयोगो
भावनावाक्ये दर्शितः ।
३. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ५१६ : विशेषोऽपि द्विरूपो गुणः
पर्यायश्च । ४. प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार ७१३६ : पर्यायशब्देषु निरुक्ति
भेदेन भिन्नमर्थमभिरोहन समभिरूढः । ५. न्यायदर्शन ५२।१३ 'हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ।
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