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ठाणं (स्थान)
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५. लक्षणदोष
अव्याप्त - जो लक्षण लक्ष्य के एक देश में मिलता है, वह अव्याप्त लक्षणदोष है। जैसे पशु का लक्षण विषाण । अतिव्याप्त—जो लक्षण लक्ष्य और अलक्ष्य दोनों में मिलता है वह अतिव्याप्त लक्षणदोष है। जैसे - वायु का
लक्षण गतिशीलता ।
असंभव - जो लक्षण अपने लक्ष्य में अंशतः भी नहीं मिलता, वह असंभव लक्षण-दोष है। जैसे-- पुद्गल का लक्षण
चैतन्य ।
६. कारण दोष – मुक्त जीव का सुख निरुपम होता है - इस वाक्य में सर्वविदित साध्य और साधन धर्म से अनुगत दृष्टान्त नहीं है, इसलिए यह उपपत्ति मान है। परोक्ष अर्थ का निर्णय करने के लिए प्रयुक्त उपपत्ति को कारण कहाजाता है। ७. हेतुदोष -
असिद्ध - अज्ञान, संदेह या विपर्यय के कारण जिस हेतु के स्वरूप की प्रतीति नहीं होती, वह असिद्ध हेतुदोष है । जैसे- शब्द अनित्य है, क्योंकि वह चाक्षुष है।
विरुद्ध-विवक्षित साध्य से विपरीत पक्ष में व्याप्त हेतु विरुद्ध हेतु दोष है । जैसे शब्द नित्य है, क्योंकि वह
स्थान १० : टि० ३५
कृतक है।
अनैकान्तिक— जो हेतु साध्य के अतिरिक्त दूसरे साध्य में भी घटित होता है, वह अनैकान्तिक हेतु दोष है । जसे यह असर्वज्ञ है, क्योंकि बोलता है ।'
८. संक्रमण दोष – प्रस्तुत प्रमेय को छोड़कर अप्रस्तुत प्रमेय की चर्चा करना, परमत द्वारा असम्मत तत्त्व को उसका मान्य तत्व बतलाना या प्रतिवादी के पक्ष को स्वीकार करना ।
यह हेत्वन्तर और अर्थान्तर निग्रहस्थान से तुलनीय है। हेत्वन्तर का अर्थ है-अपने पहले हेतु को छोड़कर दूसरे हेतु को उपस्थित करना । अथन्तिर का अर्थ है - प्रस्तुत अर्थ से असम्बद्ध अर्थ का प्रतिपादन करना ।
६. निग्रह दोष ---इसका अनुवाद वृत्ति के आधार पर किया गया है। न्याय दर्शन के अभिप्राय से भी इसकी व्याख्या इस प्रकार की जा सकती है। वादी के निग्रहस्थान में न पड़ने पर भी प्रतिवादी द्वारा उसको निग्रहस्थान में पड़ा हुआ कहना निग्रहदोष है । न्यायदर्शन की भाषा में इसे 'निरनुयोज्यानुयोग' कहा जाता है। *
--पक्ष के दोष पाँच हैं
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१०. वस्तुदोष -
१. प्रत्यक्षनिराकृत - शब्द अश्रावण है (श्रवण का विषय नहीं है) । २. अनुमान निराकृत - शन्द नित्य है ।
३. प्रतीति निराकृत -- शशी चंद्र नहीं है। ४. स्त्रवचन निराकृत मैं कहता हूं वह मिथ्या है।
५. लोकरूढिनिराकृत मनुष्य की खोपड़ी पवित्र है ।
१. भिक्षुन्यायकणिका १।७, ८, ९ २. भिक्षुन्यायकणिका ३।१७,१८,१२ ।
३. न्यायदर्शन ५/२/६, ७ ।
३५. ( सूत्र ६५ )
जिस धर्म के द्वारा अभिन्नता का बोध होता है उसे सामान्य और जिससे भिन्नता का बोध होता है उसे विशेष कहा जाता है । सामान्य संग्राहक और विशेष विभाजक होता है। प्रस्तुत सूत्र में दस विशेष संगृहीत हैं। मूल पाठ में दस विशेषों
नाम उल्लिखित नहीं हैं। उनका प्रतिपादन एक संग्रह गाथा के द्वारा किया गया है। वह गाथा कहाँ से संगृहीत है, यह अभी ज्ञात नहीं हो सका है। इसलिए इसके संक्षिप्त नामों का ठीक-ठीक अर्थ लगाना बड़ा जटिल है । वृत्तिकार ने इनके अर्थ किए हैं, किन्तु स्थान-स्थान पर प्रदर्शित विकल्पों से ज्ञात होता है कि उनके सामने इनकी निर्णायक अर्थ - परम्परा नहीं
४. वही, ५२।२३ : अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः ।
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