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________________ ठाणं (स्थान) ३६२ स्थान ४ : सूत्र २८१-२८२ २८१. चत्तारि सेणाओ पण्णत्ताओ, तं चतन्त्रः सेनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- २८१. सेना चार की प्रकार होती हैंजहाजित्वा नामैका जयति, १. कुछ सेनाएं जीतकर जीतती हैं, जइत्ता णाममेगा जयइ, जित्वा नामैका पराजयते, २. कुछ सेनाएं जीतकर भी पराजित होती जइत्ता णाममेगा पराजिणति, पराजित्य नामैका जयति, हैं, ३. कुछ सेनाएं पराजित होकर भी पराजिणित्ता णाममेगा जयइ, पराजित्य नामैका पराजयते। जीतती हैं, ४. कुछ सेनाएं पराजित होकर पराजिणित्ता णाममेगा पराजिणति। पराजित होती हैं। एवामेव चत्तारि पुरिसजाया एवमेव चत्वारि पुरुषजातानि प्रज्ञप्तानि. इसी प्रकार पुरुष भी चार प्रकार के होते पण्णत्ता, तं जहा... तद्यथा हैं-१. कुछ पुरुष जीतकर जीतते हैं, जइत्ता णाममेगे जयति, जित्वा नामैक: जयति, २. कुछ पुरुष जीतकर भी पराजित होते जइत्ता णाममेगे पराजिणति, जित्वा नामैक: पराजयते, हैं, ३. कुछ पुरुष पराजित होकर भी पराजिणित्ता णाममेगे जयति, पराजित्य नामैक: जयति, जीतते हैं, ४. कुछ पुरुष पराजित होकर पराजिणित्ता णाममेगे पराजिणति। पराजित्य नामकः पराजयते । पराजित होते हैं। माया-पदं माया-पदम् माया-पद २८२. चत्तारि केतणा पण्णता, तं जहा- चत्वारि केतनानि प्रज्ञप्तानि, तद्यथा- २८२. केतन [वक्र] चार प्रकार का होता है वंसीमूलकेतणए, मेंढविसाणकेतणए, वंशीमूलकेतनकं, मेढ़विषाणकेतनकं, १. वशीमूल-बांस की जड़, २. मेषगोमुत्तिकेतणए, गोमूत्रिकाकेतनक, विषाण-मेंढे का सींग, ३. गोमूत्रिकाअवलेहणियकेतणए। अवलेखनिकाकेतनकम्। चलते बैल के मूत्र की धार, ४.अवलेखनिका छिलते हुए बांस आदि की पतली छाल। एवामेव चउविधा माया पण्णत्ता, एवमेव चतुर्विधा माया प्रज्ञप्ता, इसी प्रकार माया भी चार प्रकार की होती तं जहातद्यथा है-१. वंशीमूल के समान-अनन्तानुवसीमूलकेतणासमाणा, वंशीमूलकेतनसमाना, बन्धी, २. मेषविषाण के समान-अप्रत्या'मेंढविसाणकेतणासमाणा, मेढविषाणकेतनसमाना, ख्यानाबरण, ३. गो-मूत्रिका के समानगोमुत्तिकेतणासमाणा, गोमूत्रिकाकेतनसमाना, प्रत्याख्यानावरण, ४. अवलेखनिका के अवलेहणियकेतणासमाणा। अवलेखनिकाकेतनसमाना। समान-संज्वलन। १. वंसीमलकेतणासमाणं माय- १. वंशीमुलकेतनसमानां मायां अन- १. वंशीमूल के समान माया में प्रवर्तमान मणपवि जीवे कालं करेति. प्रविष्ट: जीवः कालं करोति. नैरयिकेप जीव मरकर नरक में उत्पन्न होता है, रइएसु उववज्जति, उपपद्यते, २. मेंढविसाणकेतणासमाणं माय- २. मेढ़विषाणकेतनसमानां मायां २. मेध-विषाण के समान माया में प्रवर्तमणुपविट्ठ जीवे कालं करेति, अनुप्रविष्ट: जीवः कालं करोति, तिर्यग्- मान जीव मरकर तिर्यक्योनि में उत्पन्न तिरिक्खजोगिएसु उववज्जति, योनिकेषु उपपद्यते, होता है, ३. गोमुत्ति केतणासमाणं माय- ३. गोमूत्रिकाकेतनसमानां मायां अनु- ३. गो-मूत्रिका के समान माया में प्रवर्तमणुपविटु जीवे कालं करेति, प्रविष्ट: जीवः कालं करोति, मनुष्येषु मान जीव मरकर मनुष्य गति में उत्पन्न मणुस्सेसु उववज्जति, उपपद्यते, होता है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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