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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० २५
प्रकार निर्दिष्ट हैं वे व्यवहार नय की दृष्टि से पिंडरूप में निर्दिष्ट हैं।'
दिगंबर परम्परानुसारी तत्त्वार्थ सूत्र तथा उसकी व्याख्या-तत्त्वार्थवात्तिक में प्रायश्चित्त के नौ ही प्रकार निर्दिष्ट
१. आलोचना २. प्रतिक्रमण ३. तदुभय ४. विवेक ५. व्युत्सर्ग ६. तप ७. छेद ८. परिहार :. उपस्थापना।
इनमें दसवें प्रायश्चित्त-पारांचिक का उल्लेख नहीं है। 'मूल' प्रायश्चित्त के स्थान पर 'उपस्थापना' का उल्लेख है। वहां इसका वही अर्थ किया गया है, जो श्वेताम्बर आचार्यों ने 'मूल' का किया है।'
तत्त्वार्थवार्तिक में 'अनवस्थाप्य' का भी उल्लेख नहीं है, किन्तु उसमें 'परिहार' नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है, जो श्वेताम्बर परम्परा में प्राप्त नहीं है। इसका अर्थ है-पक्ष, मास आदि काल-मर्यादा के अनुसार प्रायश्चित्त प्राप्त मुनि को संघ से बाहर रखना।
प्रायश्चित्त प्राप्ति के प्रकरण में अनुपस्थापन और पारांचिक प्रायश्चित्त का विधान किया गया है। किन्तु उनका अर्थ श्वेताम्बर परम्परा से भिन्न है।
अपकृष्ट आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण करना अनुपस्थापन है और तीन आचार्यों तक, एक आचार्य से अन्य आचार्य के पास प्रायश्चित्त ग्रहण के लिए भेजना पारांचिक है।'
तत्त्वार्थवातिक में प्रायश्चित्त प्राप्ति का विवरण इस प्रकार है
१. विद्या और ध्यान के साधनों को ग्रहण करने आदि में विनय के बिना प्रवृत्ति करना दोष है, उसका प्रायश्चित्त है आलोचना।
२. देश और काल के नियम से अवश्य करणीय विधानों को धर्म-कथा आदि के कारण भूल जाने पर पुनः करने के समय प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त।
__३. भय, शीघ्रता, विस्मरण, अज्ञान, अशक्ति और आपत्ति आदि कारणों से महाव्रतों में अतिचार लग जानाइसके लिए छेद के पहले के छहों प्रायश्चित्त हैं।
४. शक्ति का गोपन न कर प्रयत्न से परिहार करते हुए भी किसी कारणवश अप्रासुक के स्वयं ग्रहण करने या ग्रहण कराने में, त्यक्त प्रासुक का विस्मरण हो जाए और ग्रहण करने पर उसका स्मरण हो जाए तो उसका पुन: उत्सर्म (विवेक) करना ही प्रायश्चित्त है।
५. दुःस्वप्न, दुश्चिन्ता, मलोत्सर्ग, मूत्र का अतिचार, महानदी और महा अटवी को पार करने में व्युत्सर्ग प्रायश्चित्त
६. बार-बार प्रमाद, बहुदृष्ट अपराध, आचार्य आदि के विरुद्ध वर्तन करना, सम्यग्दर्शन की विराधना होने पर क्रमश: छेद, मूल अनुपस्थापन और पारांचिक प्रायश्चित्त दिया जाता है।
प्रायश्चित्त के निम्न निर्दिष्ट प्रयोजन हैं
१. प्रमादजनित दोषों का निराकरण । २. भावों की प्रसन्नता। ३. शल्य रहित होना। ४. अव्यवस्था का निवारण। ५. मर्यादा का पालन । ६. संयम की दृढ़ता । ७. आराधना।
प्रायश्चित्त एक प्रकार की चिकित्सा है। चिकित्सा रोगी को कष्ट देने के लिए नहीं की जाती, किन्तु रोग निवारण के लिए की जाती है। इसी प्रकार प्रायश्चित्त भी राग आदि अपराधों के उपशमन के लिए दिया जाता है।
१. तत्त्वार्थवातिक ६।२२ : जीवस्यासंख्येयलोकपरिणामाः परि
णामविकल्पाः, अपराधाश्च तावन्त एव, न तेषां तावद्विकल्पं
प्रायश्चित्तमस्ति। २. वही : ६।२२। ३. बही ६२२ : पुनर्दीक्षाप्रापणमुपस्थापना।
४. तत्त्वार्थवार्तिक ९।२२ : पक्ष मासादिविभागेन दूरत : परिवर्जनं
परिहारः । ५. वही ६।२२। ६. वही ६।२२ । ७. बही ६।२२।
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