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________________ ठाणं (स्थान) ९७६ स्थान १०: टि० २३-२५ षट्प्राभूत की श्रुतसागरीय वृत्ति में आलोचना के दस दोषों का संग्रह गाथा में उल्लेख है । वह गाथा मूलाचार की है, किन्तु इन दोषों की मूलाचारगत व्याख्या और श्रुतसागरीय व्याख्या में कहीं-कहीं बहुत बड़ा मत-भेद है। मूलाचार की वृत्ति का अर्थ ऊपर दिया जा चुका है। श्रुतसागरीय की व्याख्या निम्न प्रकार से है१. आकंपित-आचार्य मुझे दंड न दे दें--इस भय से आलोचना करना। २. अनुमानित-यदि इतना पाप किया जाएगा तो उससे निस्तार नहीं होगा, ऐसा अनुमान कर आलोचना करना। ३. यदृष्ट-जो दोष किसी के द्वारा देखा गया है, उसी की आलोचना करना। ४. बादर-केवल स्थूल दोषों का प्रकाशन करना। ५. सूक्ष्म-केवल सूक्ष्म दोषों का प्रकाशन करना। ६. छन्न-गुप्त रूप से केवल आचार्य के पास अपना दोष प्रकट करना, दूसरे के पास नहीं। ७. शन्दाकुल-जब शोरगुल हो तब अपने दोष को प्रगट करना। ८. बहुजन-जब बहुत बड़ा संघ एकत्रित हो, तब दोष प्रगट करना। ६. अव्यक्त-दोष को अव्यक्त रूप से प्रगट करना। १०. तत्सेवी-जिस दोष का प्रकाशन किया है, उसका पूनः सेवन करना।' २३. (सू०७१) मिलाइए-स्थानांग ८।१८; तुलना के लिए देखें निशीथभाष्य, भाग ४, पृष्ठ ३६२ आदि । २४. (सू०७२) प्रस्तुत सूत्र में आलोचना देने वाले अनगार के दस गुणों का उल्लेख है। आठवें स्थान के अठारहवें सूत्र में आठ गुणों का उल्लेख हुआ है और यहां उनके अतिरिक्त दो गुण और उल्लिखित हैं। इन दस गुणों में सातवां गुण है--निर्यापक'। आठवें स्थान में वृत्तिकार ने इसका अर्थ- 'बड़े प्रायश्चित्त को भी निभा सके'ऐसा सहयोग देने वाला, किया है। प्रस्तुत सूत्र में उसका अर्थ'—ऐसा प्रायश्चित्त देने वाला जिसे प्रायश्चित्त लेने वाला निभा सके-किया है। ये दोनों अर्थ भिन्न हैं। निर्यापक' प्रायश्चित्त देने वाले का विशेषण है, इसलिए प्रथम अर्थ ही संगत लगता है। २५. (सू०७३) प्रस्तुत सूत्र में दस प्रकार के प्रायश्चित्त निर्दिष्ट हैं। इनका निर्देश दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर किया गया है। कई दोष आलोचना प्रायश्चित्त द्वारा, कई प्रतिक्रमण प्रायश्चित्त द्वारा है और कई पारांचिक प्रायश्चित्त द्वारा शुद्ध होते हैं। इसी आधार पर प्रायश्चित्तों का निरूपण किया गया है। आचार्य अकलंक ने बताया है कि जीव के परिणाम असंख्येय लोक जितने होते हैं। जितने परिणाम होते हैं उतने ही अपराध होते हैं और जितने अपराध होते हैं उतने ही उनके प्रायश्चित्त होने चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं है। प्रायश्चित्त के जो १. षट्प्राभूत १।६, श्रुतसागरीय वृत्ति पृष्ठ है । २. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४०२ : 'निज्जवए त्ति निर्यापयति तथा करोति यथा गुर्वपि प्रायश्चित्तं शिष्यो निर्वाहयतीति निर्यापक इति। ३. वही, वृत्ति, पन ४६१ : 'निज्जवए' यस्तथा प्रायश्चित्तं दत्ते यथा परो निर्वोढुमलं भवतीति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
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