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ठाणं (स्थान)
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स्थान १० : टि० २२
हमने प्रस्तुत सूत्र का अनुवाद स्थानांगवृत्ति और निशीथभाष्यचूणि के आधार पर किया है । इसलिए उनके आधार पर शेष शन्दों पर विचार नहीं किया गया है। तत्वार्थवार्तिक में आलोचना के दस दोषों का विवरण प्राप्त है किन्तु उसमें सब दोषों का नामोल्लेख नहीं है। केवल तीसरे दोष का नाम 'मायाचार और चौथे का स्थूल' दिया है। मूलाचार तथा उसकी वृत्ति में इन सभी दोषों का नामोल्लेख पूर्वक विवरण दिया गया है। इन दोनों का तुलनात्मक अध्ययन हम नीचे प्रस्तुत कर रहे हैं
१. 'गुरु को उपकरण देने से वे मुझे लघु प्रायश्चित्त देंगे'—ऐसा सोचकर उपकरण देना। यह पहला दोष है।
मूलाचार में पहला दोष 'आकंप्य' है। इसका अर्थ है-आचार्य को भक्त, पान, उपकरण आदि दे अपना आत्मीय बनाकर दोष निवेदन करना।
२. 'मैं प्रकृति से दुर्बल हूं, ग्लान हूँ, उपवास आदि करने में असमर्थ हूं, यदि आप लघु प्रायश्चित्त दें तो मैं दोष निवेदन करूं'—यह कह कर दोष निवेदन करना। यह दूसरा दोष है।
मूलाचार में दूसरा दोष 'अनुमान्य' है। इसका अर्थ है-शरीर की शक्ति, आहार और बल की अल्पता दिखाकर, दीन वचनों से आचार्य को अनुमत कर उनके मन में करुणा पैदा कर दोष निवेदन करना।
३. दूसरे द्वारा अज्ञात दोषों को छुपाकर केवल ज्ञान दोषों का निवेदन करना - यह मायाचार नाम का तीसरा दोष है।
मूलाचार में इसे तीसरा 'दष्ट' दोष माना है। ४. आलस्य या प्रमादवश अन्य अपराधों की परवाह न कर केवल स्थूल दोषों का निवेदन करना। मूलाचार में इसे चौथा 'बादर' दोष माना है।
५. महादुश्चर प्रायश्चित्त प्राप्त होने के भय से महान दोषों का संवरण कर छोटे प्रमाद का निवेदन करना। यह पांचवां दोष है।
मूलाचार में इसे पांचवां 'सूक्ष्म' दोष माना है।
६. इस प्रकार का दोष हो जाने पर क्या प्रायश्चित प्राप्त हो सकता है, इसको उपायों द्वारा जानकर गुरु की उपासना कर दोष का निवेदन करना। यह छठा दोष है।
मुलाचार में छठा दोष 'प्रच्छन्न' है। इसका अर्थ है --किसी मिस से दोष-कयन कर स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना।
७. पाक्षिक, चातुर्मासिक, सांवत्सरिक प्रतिक्रमण के समय अनेक साधु आलोचना करते हैं। उस समय कोलाहलपूर्ण वातावरण में दोष-कथन करना। यह सातवां दोष है।
मूलाचार में इसे सातवां शब्दाकुलित' दोष माना है।
८. गुरु के द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त युक्त है या नहीं, आगम विहित है या नहीं इस प्रकार शंकाशील होकर दूसरे साधुओं से पूछताछ करना । यह आठवां दोष है।
मूलाचार में आठवां दोष 'बहुजन' है। इसका अर्थ है-एक आचार्य को अपने दोष का निवेदन कर, प्रायश्चित लेकर उसमें श्रद्धा न करते हुए पुनः दूसरे आचार्य के पास उस दोष का निवेदन करना।
६. जिस किसी उद्देश्य से अपने जैसे ही अगीतार्थ के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना।
मूलाचार में नौंवा दोष 'अव्यक्त' है। इसका अर्थ हैं— लघु प्रायश्चित्त के निमित्त अव्यक्त (प्रायश्चित्त देने में अकुशल) के समक्ष अपने दोषों का निवेदन करना।
१०. 'मेरा दोष इसके दोष के समान है। उसको यही जानता है। इसको जो प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है वही मेरे लिए भी युक्त है'--ऐसा सोचकर अपने दोषों का संवरण करना यह दसवां दोष है।
मूलाचार में दसवां दोष 'तत्सेवी' है। इसका अर्थ है -जो व्यक्ति अपने समान ही दोषों से युक्त है उसको अपने दोष का निवेदन करना, जिससे कि वह बड़ा प्रायश्चित्त न दे।
इन दोनों ग्रन्थों में अनेक स्थलों पर अर्थ-भेद स्पष्ट परिलक्षित होता है।
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