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ठाणं (स्थान)
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आप प्रतिषेवणा-- आपत् की व्याख्या चार दृष्टियों से की गई है । '
१. द्रव्यतः आपत् - मुनि योग्य आहार आदि की अप्राप्ति ।
२. क्षेत्रतः आपत् - अरण्यविहार आदि की स्थिति ।
३. कालतः आपत् -- दुर्भिक्ष आदि का समय ।
४. भावतः आपत् - शरीर की रुग्णावस्था ।
शंकित प्रतिषेवणा- प्रस्तुत सूत्र की संग्रह गाथा में 'शंकितप्रतिषेवणा' का उल्लेख है । निशीथ भाष्य में इसके स्थान पर 'तितिण' प्रतिषेवणा का उल्लेख है । शंकित प्रतिषेवणा का अर्थ वही है जो अनुवाद में प्राप्त है । तितिण प्रतिषेवणा का आहार आदि प्राप्त न होने पर गिड़गिड़ाना ।"
विमर्श प्रतिषेवणा - चूर्णिकार के अनुसार शिष्यों की परीक्षा के लिए गुरुजन सचित्त भूमि आदि पर चलने लग जाते थे। इस कार्य पर शिष्य की प्रतिक्रिया जान वे उसकी श्रद्धा या अश्रद्धा का निर्णय करते थे । *
निशीथभाष्य में प्रतिषेवणा का प्रकरण बहुत विस्तृत है। तात्कालिक धारणा की जानकारी के लिए यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
२२. (सू०७० )
प्रस्तुत सूत्र में जो संग्रहीत गाथा है वह निशीथभाष्य चूर्णि में भी मिलती है।" मूलाचार में भी कुछ शाब्दिक परिवर्तन के साथ यही गाथा प्राप्त है।' निशीथ चूर्णि स्थानांगवृत्ति, तत्त्वार्थवार्तिक, मूलाचार की वसुनन्दि कृत वृत्ति आदि का तुलनात्मक अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि इन दोषों की अर्थ- परम्परा कहीं कहीं विस्मृत हुई है। उस विस्मृत परम्परा का अर्थ शाब्दिक आधार पर किया गया है। इस मत की पुष्टि के लिए दो शब्द - अणुमाणइत्ता' और 'छन्न' प्रस्तुत किए जा सकते हैं। अभयदेवसूरि ने 'अणुमाणइत्ता' का अर्थ - आलोचनाचार्य मृदु दंड देने वाले हैं या अमृदु दंड देने वाले हैं ऐसा 'अनुमान कर' मृदु प्रायश्चित्त की सम्भावना होने पर 'आलोचना करना' - किया है।
निशीथभाष्य चूर्णि में इसका अर्थ-अनुनय कर — किया गया है।"
तत्त्वार्थवार्तिक और मूलाचार के अर्थ आगे दिए गए हैं। इनमें 'अनुनय कर' या 'आलोचनाचार्य को करुणार्द्र बनाकर' – यह अर्थ अधिक प्रासंगिक लगता है।
स्थानांगवृत्ति' और निशीथभाष्यचूर्णि" में 'छन्न' का अर्थ है— इतने धीमे स्वर में आलोचना करना, जिसे वह स्वयं ही सुन सके, आलोचनाचार्यं न सुन पाएं।
तत्वार्थवार्तिक तथा मूलाचार में 'छन्न' का आशय उक्त अर्थ से भिन्न है ।
१. निशीथभाष्य, गाथा ४७६, चूर्णि ।
२. निशीथभाष्य गाथा ४७७ :
दप्पपमादाणा भोगा आतुरे आवतीसु य । तितिणे सहस्वकारे भयप्पदोसा य वीमंसा ॥
३. निशीथभाष्य गाथा ४८० : चूर्णि आहारादिसु अलब्भमाणेसु तिडितिडे ।
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४. निशीथभाष्य गाथा ४८० : चूर्णि
५. निशीथभाष्य भाग ४, पृष्ठ ३६३ ।
६. मूलाचार, शीलगुणाधिकार, गाथा १५ :
स्थान १० : टि० २२
आकंपिय अणुमणिय जं दिट्ठं बाद रंच सुहुमं च । छष्णं सद्दाकुलियं बहुजणमव्वत्त तस्सेवी ॥
७. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६० : 'अणुमाणइत्ता' अनुमानं कृत्वा, किमयं मृत्युदण्ड उतोग्रदण्ड इति ज्ञात्वेत्यर्थः, अयमभिप्रायोऽस्य – यद्ययं मृदुदण्डस्ततो दास्याम्यालोचनामन्यथा नेति । ८. निशीथ भाष्य भाग ४, पृष्ठ ३६३: "चरमं थोवं एसपच्छितं दाहिति ण वा दाहिति ॥
पुब्वामेव आयरियं अणुणेति दुब्बलो हं थोवं में पच्छित्तं देज्जह ॥"
९. स्थानांगवृत्ति, पत्र ४६०: प्रच्छन्नमालोचयति यथात्मनैव शृणोति नाचार्यः ।
१०. निशीथभाष्य भाग ४ पृष्ठ ३६३ : चूर्णि छष्णं" ति - तहा अबराहे अप्पसद्देण उच्चरइ जहा अप्पणा चेव सुणेति णो गुरु ।
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