SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1017
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ठाणं (स्थान) ६७६ स्थान १० : टि० २१ २१ (सू० ६६) निशीथभाष्य में प्रतिषेवणा के दो प्रकार बतलाए गए हैं-दर्प प्रतिषेवणा और अल्प प्रतिषेवणा।' दर्प का अर्थ है-व्यायाम, वल्गन और धावन । निशीथभाष्य की चूणि में व्यायाम के अर्थ की स्पष्टता दो उदाहरणों से की गई है, जैसे-लाठी चलाना, पत्थर उठाना। वल्गन का अर्थ कूदना और धावन का अर्थ दौड़ना है। बाहुयुद्ध आदि भी इसी प्रकरण में सम्मिलित हैं। भाष्यकार ने दर्प का एक अर्थ प्रमाद किया है। दर्प से होने वाली प्रतिषेवणा दपिका प्रतिषेवणा कहलाती है। यह प्रमाद या उद्धतता से होने वाला दोषाचरण है। दपिका प्रतिवेषणा मूलगुण और उत्तरगुण दोनों की होती है। दर्प प्रतिषेवणा निष्कारण की जाने वाली प्रतिषेवणा है। कल्प प्रतिषेवणा किसी विशेष प्रयोजन के उपस्थित होने पर की जाती है। भाष्यकार ने दपिका और कल्पिका-इन दोनों को प्रमाद प्रतिषेवणा और अप्रमाद प्रतिषेवणा से अभिन्न माना है। उसके अनुसार प्रमादप्रतिषेवणा ही दपिका प्रतिषेवणा है और अप्रमादप्रतिषेवणा ही कल्पिका प्रतिषेवणा है। प्रस्तुत गाथा में कल्पिका प्रतिषेवणा या अप्रमाद प्रतिषेवणा का उल्लेख नहीं है किन्तु इसमें आए हुए अनाभोग और और सहसाकार उसी के दो प्रकार हैं। अनाभोग का अर्थ है-अत्यन्त विस्मृति । अनाभोग प्रतिसेवी किसी भी प्रमाद से प्रमत्त नहीं होता। किंतु कदाचित् उसे ईर्यासमिति आदि के समाचरण की विस्मृति हो जाती है। यह उसकी अनुपयुक्तता (उपयोग शून्यता) की प्रतिवेषणा है । सद्साकार प्रतिषेबणा में उपयुक्त अवस्था होने पर भी दैहिक चंचलता की विवशता के कारण प्राणातिपात आदि का समाचरण हो जाता है।" कंटकाकीर्ण पथ में चलने वाला मनुष्य सावधान होते हुए भी कहीं न कहीं पैर को पूर्ण नियन्त्रित न रखने के कारण बींध लेता है। इसी प्रकार सावधानी पूर्वक प्रवृत्ति करते हुए मुनि से भी शारीरिक चंचलता के कारण कहीं न कहीं प्राणातिपात आदि का समाचरण हो जाता है। इसमें न प्रमाद है और न विस्मृति, किन्तु शारीरिक विवशता है। आतुर प्रतिषेषणाभाष्यकार ने आतुर के तीन प्रकार बतलाए हैं(१) क्षुधातुर (२) पिपासातुर (३) रोगातुर। इससे कामातुर और क्रोधातुर आदि का वर्णन सहज ही प्राप्त हो जाता है। १. निशीथभाष्य गाथा ८८: दप्पे सकारणंमि य, दुविधा पडिसेवणा समासेणं । एक्केक्का वि य दुविधा मूलगुणे उत्तरगुणे य ।। २. निशीथभाष्य गाथा ४६४ : वायामवग्गणादी, णिक्कारणधावणं तु दप्पो तु । ३. निशीथभाष्य गाथा ४६४ : चूर्णि-वायामो जहा लगुडि भमाडणं, उवलयकडणं, वग्गणं मल्लवत् । आदि सद्दगहणा बाहु जुद्धकरणं चीवरडेवणं वा धावणं खड्डयप्पवणं ।। ४. निशीथभाष्य गाथा ६१ : दप्पो तु जो पमादो। ५. निशीथभाष्य गाथा ८८ : चूर्णि-सकारणमि य त्ति णाण दसणाणि अहिकिच्च संजमादि-जोगेसु य असरमाणेसु पडिसेव त्ति, सा कप्पे। ६. निशीथभाष्य गाथा ६०: दप्पे कप्प पमत्ताणभोग आहच्चतो य चरिमा तु । पडिलोम-परवणता, अत्थेणं होति अणुलोमा ।। ७. निशीथभाष्यगाथा १० : चूर्णि जा सा अपमन्त-पडिसेवा सा दुविहा-अणाभोगा आहच्चओ य । ८. निशीथभाष्य गाथा ६५: चूणि-अणाभोगो णाम अत्यंतविस्मृतिः १. निणीयभाष्यगाथा ६५ : ण पमादो कातब्बो, जतण-पडिसेवणा अतो पढमं । सा तु अणाभोगेणं, सहसक्कारेण वा होज्जा ॥ १०. निशीथभाष्य गाथा ६७ : चूणि-सहस्साकरणमेयं ति सहसा करणं सहसक्करणं जाणमाणस्स परायत्तस्सेत्यर्थः । ११. निशीथभाष्य गाथा १००: असि कंटकविसमादिसु, गच्छंतो सिक्खिओ वि जत्तेणं । चुक्कइ एमेव मुणी, छलिज्जति अप्पमत्तो वि॥ १२. निशीथभाष्य गाथा ४७६ : पढम-बितिषदुतो वा वाधितो वा जं सेवे आतुरा एसा। दब्वादिअलंभे पुण, चउविधा आवती होति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003598
Book TitleAgam 03 Ang 03 Sthanang Sutra Thanam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1990
Total Pages1094
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_sthanang
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy