________________
ठाणं (स्थान)
६८ १
स्थान १० : टि० २६-२८
निशीथभाष्यकार ने तीर्थंकर की धनवंतरी से, प्रायश्चित्त प्राप्त साधु की रोगी से, अपराधों की रोगों से और प्रायश्चित्त की औषध से तुलना की है।'
२६. मार्ग (सू०७४ )
प्रस्तुत सूत्र में 'मार्ग' शब्द मोक्ष मार्ग का सूचक है। सूत्रकृतांग [ प्रथम श्रुतस्कंध ] के ग्यारहवें अध्ययन का नाम 'मार्ग' है । उसमें अहिंसा को 'मार्ग' बताया गया है। उत्तराध्ययन के अठाईसवें अध्ययन का नाम 'मोक्षमार्गगति' है । उसमें ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप को मार्ग कहा गया है।"
तत्वार्थ के प्रथम सूत्र में सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चारित्र को मोक्ष मार्ग कहा है। इन व्याख्या - विकल्पों में केवल प्रतिपादन पद्धति का भेद है, किन्तु आशय-भेद नहीं है ।
२७. व्याघ्र (सू०८२)
प्रस्तुत सूत्र में दस भवनपति देवों के दस चैत्यवृक्षों का उल्लेख है । उसमें वायुकुमार के चैत्यवृक्ष का नाम 'वप्प' है। आदर्शों तथा मुद्रित पुस्तकों में 'वप्पा' 'वप्पो' 'वप्पे' ये शब्द मिलते हैं। किन्तु उपलब्ध कोषों में वृक्षवाची 'वप्र' शब्द नहीं मिलता। यहां 'वग्घ' [सं० व्याघ्र ] शब्द होना चाहिए था। पाइयसद्दमहण्णव में व्याघ्र शब्द के दो अर्थ किए हैं
१. लाल एरण्ड का वृक्ष । २. करंज का पेड़ ।
आप्टे की संस्कृत इंगलिश डिक्शनेरी में भी 'व्याघ्र' शब्द का अर्थ 'रक्त एरंड' किया है । अत: यहां 'वाघ' [ व्याघ्र ] शब्द ही उपयुक्त लगता है ।
२८. ( सू० ८३ )
बौद्ध परम्परा में तेरह प्रकार के सुख-युगलों की परिकल्पना की गई है। उन युगलों में एक को अधम और एक को
श्रेष्ठ माना है।
१. गृहस्थ सुख, प्रव्रज्या सुख ।
२. कामभोग सुख, अभिनिष्क्रमण सुख ।
३. लौकिक सुख, लोकोत्तर सुख ।
Jain Education International
४. सास्रव सुख, अनास्रव सुख ।
५. भौतिक सुख, अभौतिक सुख ।
६. आर्य सुख, अनार्य सुख ।
७. शारीरिक सुख, चैतसिक सुख ।
८. प्रीति सुख, अप्रीति सुख ।
६. आस्वाद सुख, उपेक्षा सुख ।
१०. असमाधि सुख, समाधि सुख ।
११. प्रीति आलंबन सुख, अप्रीति आलंबन सुख । १२. आस्वाद आलंबन सुख, उपेक्षा आलंबन सुख । १३. रूप आलंबन सुख, अरूप आलंबन सुख ।
१. निशीथभाष्य गाथा ६५०७ :
घण्णंतरितुल्लो जिणो णायब्वो आतुरोवमो साहू । रोगा इव अवराहा, ओसहसरिसा य पच्छित्ता ॥
२. उत्तराध्ययन २५८।१ :
मोक्खमग्गगई तच्च, सुणेह जिणभासियं । चउकारण संजुत्तं, नाणदंसणलक्खणं ॥
३. तत्त्वार्थं १।१ : सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । ४. अंगुत्तरनिकाय, प्रथमभाग, पृष्ठ ८१-८३ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org